ऐसे करें शरीर के रोग दूर …..
शौच से निवृत होकर दातुन अवश्य करो । यही नहीं कि दातुन से दांत ही निर्मल, दृढ़ और स्वस्थ होते हैं अपितु प्रतिदिन दन्तधावन करनेवालों की आंखें सौ वर्ष तक रोगरहित रहती हैं । जब मुख में दातुन डालकर मुख साफ करते हैं तो उसी समय आंखों में से जल के रूप में मल निकलता है जिससे आंखों की ज्योति बढ़ती है ।
चक्षुधावन
दातुन के पश्चात् कुल्ला करके एक खुले मुंह का जलपात्र लें और उसको ऊपर तक शुद्ध जल में भर लें । उसमें अपनी दोनों आंखों को डुबोवें और बार-बार आंखों को जल के अन्दर खोलें और बन्द करें । इस प्रकार कुछ देर तक चक्षुस्नान करने से आंखों को बहुत ही लाभ होगा । इस चक्षुस्नान की क्रिया को किसी शुद्ध और निर्मल जल वाले सरोवर में भी किया जा सकता है । यह ध्यान रहे कि मिट्टी, धूल आदि मिले हुए जल में यह क्रिया कभी न करें, नहीं तो लाभ के स्थान पर हानि ही होगी ।
जलनेति सं० १
शुद्ध, शीतल और ताजा जल लेकर शनैः शनैः नासिका के दोनों द्वारों से पीयें और मुंह से निकाल दें। दो-चार बार इस क्रिया को करके नाक और मुंह को साफ कर लो ।
जलनेति सं० २
किसी तूतरीवाले (टूटीदार) पात्र में जल लें और टूटी को बायें नाक में लगायें । बायें नाक को थोड़ा सा ऊपर को कर लें और दायें को नीचे को झुकायें और मुख से श्वास लें । बायें नासिका द्वार में डाला हुआ जल दक्षिण नासिका के छिद्र से स्वयं निकलेगा । इसी प्रकार दायें नाक में डालकर बायें से निकालो । यह ध्यान रहे कि बासी और शीतल जल से नेति कभी न करें । उष्ण जल का भी प्रयोग नेति में कभी न करें । आरम्भ में इस क्रिया को थोड़ी देर करो, फिर शनैः शनैः बढ़ाते चले जाओ । यह क्रिया आंखों की ज्योति के लिये इतनी लाभदायक है कि इसका निरन्तर श्रद्धापूर्वक दीर्घकाल तक अभ्यास करने से ऐनकों की आवश्यकता नहीं रहती । चश्मे उतारकर फेंक दिये जाते हैं । कोई सुरमा, अंजन आदि औषध इससे अधिक लाभदायक नहीं । जहां यह क्रिया चक्षुओं के लिए अमृत संजीवनी है, वहां यह प्रतिश्याय (जुकाम) को भी दूर भगा देती है । जो भी इसे जितनी श्रद्धापूर्वक करेगा उतना ही लाभ उठायेगा और ऋषियों के गुण गायेगा ।
जलनेति से किसी प्रकार की हानि नहीं होती । यह मस्तिष्क की उष्णता और शुष्कता को भी दूर करती है । सूत्रनेति (धागे से नेति करना) शुष्कता लाती है किन्तु जलनेति से शुष्कता दूर होती है । सूत्रनेति इतनी लाभदायक नहीं जितनी कि जलनेति । जलनेति से तो मस्तिष्क अत्यन्त शुद्ध, निर्मल और हल्का हो जाता है । इससे और भी अनेक लाभ हैं ।
जलनेति सं० ३
जलनेति का एक दूसरा प्रकार भी है –
मुख को जल से पूर्ण भर लो और खड़े होकर सिर को थोड़ा सा आगे झुकाओ और शनैः शनैः नासिका द्वारा श्वास को बाहर निकालो । वायु के साथ जल भी नाक के द्वारा निकलने लगेगा । जिह्वा के द्वारा भी थोड़ा सा जल को धक्का दें । इस प्रकार अभ्यास से जल दो-चार दिन में नाक से निकलने लगेगा । इस क्रिया से भी उपरोक्त जलनेति वाले सारे लाभ होंगे । किसी प्रकार का मल भी मस्तिष्क में न रहेगा । आंखों के सब प्रकार के रोग दूर होकर ज्योति दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जावेगी । इसके पश्चात् शुद्ध शीतल जल से स्नान करें । पहले जल सिर पर डालें । जब सिर खूब भीग जाय तो फिर अन्य अंगों पर डालें । नदी में स्नान करना हो तो भी पहले सिर धो लें ।
अन्य उपाय सं० २
(१) स्नान के समय सिर से पहले पैरों को शीतल जल से कभी न धोवो । यदि स्नान करते समय पांवों को पहले भिगोवोगे तो नीचे की उष्णता मस्तिष्क में चढ़ जायेगी । यह ध्यान रक्खो कि सदैव शीतल जल से स्नान करो और सिर पर शीतल जल खूब डालो । यदि दुर्भाग्यवश रुग्णावस्था में उष्ण जल से नहाना पड़े तो पहले पैरों पर डालो । सिर को ठंडे जल से ही धोवो । नाभि के नीचे मसाने और मूत्रेन्द्रिय पर भी उष्ण जल कभी मत डालो
(२) सिर में किसी प्रकार का मैल न रहने पाये ।
(३) निरर्थक फैशन के पागलपन में सिर पर बड़े-बड़े बाल न रक्खो । इनमें धूल आदि मैल जम जाता है और स्नान भी भली-भांति नहीं हो सकता । बालों से मस्तिष्क, बुद्धि और आंखें खराब होती हैं । उष्ण प्रदेश और उष्णकाल में बाल अत्यन्त हानिकारक हैं । अतः इस बला से बचे रहो जिससे कि स्नान का लाभ शरीर और चक्षुओं को पूर्णतया पहुंच सके ।
(४) शुद्ध सरोवर वा नदी में नहाने वा तैरने से भी चक्षुओं को बड़ा ही लाभ होता है । स्नान का स्नान और व्यायाम का व्यायाम । पर्याप्त समय शुद्ध जल में प्रतिदिन तैरने से चक्षु और वीर्यसम्बन्धी सभी रोग दूर हो जाते हैं । तैरने के समय चक्षुस्नान के लिए भी बड़ी सुविधा है । किन्तु जल निर्मल हो । यदि नदी और सरोवर सुलभ न हो तो कूप पर पर्याप्त जल से शीतकाल में न्यून से न्यून एक बार और उष्ण ऋतु में दो बार अवश्य स्नान करो । जल के निकालने और बर्तने में आलस्य और लोभ न करो । जल की महिमा वेद भगवान् ने भी खूब गाई है –
अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेजसम्-अथर्ववेद १।४।४
जल में अमृत और औषध है इसीलिए तो जल का नाम जीवन भी है ।
यदि प्रभु-प्रदत्त इस जलरूपी अमृत और औषध का सदुपयोग करोगे तो अनेक प्रकार के लाभ उठाओगे और सब प्रकार से स्वस्थ और रोगमुक्त हो जावोगे ।
(५) सदैव खूब रगड़-रगड़कर घर्षण स्नान करना चाहिए । पैरों और पैरों के तलवों को खूब धोना और साफ करना चाहिए । पैरों के ऊपर नीचे तलवों पर तथा उंगलियों पर किसी प्रकार का मैल न लगा रहे ।
(६) पैरों को साफ रखने से आंखों की ज्योति बढ़ती और रोग दूर होते हैं । विशेषतया इसके साथ कभी-कभी सप्ताह में एक-दो बार पैरों के तलवों की शुद्ध सरसों के तेल से मालिश करना चक्षुओं के लिए बड़ा हितकर है ।
(७) जब कभी तेल की मालिश की जावे तो उस समय शिर और पैर के तलवों की मालिश अवश्य करें ।
(८) प्रतिदिन सोते समय सरसों का तेल थोड़ा गर्म करके एक दो बूंद कानों में डालने से आंखों को बहुत ही लाभ पहुंचता है तथा आंखें कभी नहीं दुखती, साथ ही कानों को लाभ होता है ।
डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी ( प्रबंध संपादक )