क्या है विपस्सना : ध्यान प्रयोग
विपस्सना मनुष्य – जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान – प्रयोग है। जितने व्यक्ति विपस्सना से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए उतने किसी और विधि से कभी नहीं।
विपस्सना शब्द का अर्थ होता है : देखना, लौटकर देखना।
बुद्ध कहते : आओ और देख लो। मानने की जरूरत नहीं है। देखो, फिर मान लेना। और जिसने देख लिया, उसे मानना थोड़े ही पड़ता है, मान ही लेना पड़ता है। और बुद्ध के देखने की जो प्रक्रिया थी, दिखाने की जो प्रक्रिया थी, उसका नाम है विपस्सना।
विपस्सना बड़ा सीधी – सरल प्रयोग है। अपनी आती – जाती श्वास के प्रति साक्षीभाव।
विपस्सना का अर्थ है शांत बैठकर, श्वास को बिना बदले। खयाल रखना प्राणायाम और विपस्सना में यही भेद है। प्राणायाम में श्वास को बदलने की चेष्टा की जाती है, विपस्सना में श्वास जैसी है वैसी ही देखने की आकांक्षा है। जैसी है – अच्छी है, बुरी है, तेज है, शांत है, दौड़ती है, भागती है, ठहरी है, जैसी है!
बुद्ध ने तो कहा : तुम तो बैठ जाओ, श्वास तो चल ही रही है; जैसी चल रही है बस बैठकर देखते रहो। जैसे राह के किनारे बैठकर कोई राह चलते यात्रियों को देखे, कि नदी – तट पर बैठ कर नदी की बहती धार को देखे।
जो भी है, जैसा है, उसको वैसा ही देखते रहो। जरा भी उसे बदलने की आकांक्षा आरोपित न करो। बस शांत बैठ कर श्वास को देखते रहो। देखते—देखते ही श्वास और शांत हो जाती है। क्योंकि देखने में ही शांति है।
जो भी विचार गुजर रहे हैं, निष्पक्ष देख रहे हो। श्वास की तरंग धीमे – धीमे शांत होने लगेगी। श्वास भीतर आती है, अनुभव करो स्पर्श… नासापुटों में। श्वास भीतर गयी, फेफड़े फैले; अनुभव करो फेफड़ों का फैलना। फिर क्षण – भर सब रुक गया… अनुभव करो उस रुके हुए क्षण को। फिर श्वास बाहर चली, फेफड़े सिकुड़े, अनुभव करो उस सिकुड़ने को। फिर नासापुटों से श्वास बाहर गयी। अनुभव करो उत्तप्त श्वास नासापुटों से बाहर जाती। फिर क्षण – भर सब ठहर गया, फिर नयी श्वास आयी।
श्वास का भीतर आना, क्षण – भर ठहरना, फिर श्वास का बाहर जाना, क्षण – भर फिर श्वास का बाहर ठहरना, फिर नयी श्वास का आवागमन, यह वर्तुल है – वर्तुल को चुपचाप देखते रहो। करने की कोई भी बात नहीं, बस देखो। यही विपस्सना का अर्थ है।
क्या होगा इस देखने से ? इस देखने से अपूर्व होता है। इसके देखते – देखते ही चित्त के सारे रोग तिरोहित हो जाते हैं। इसके देखते – देखते ही, मैं देह नहीं हूं इसकी प्रत्यक्ष प्रतीति हो जाती है। मैं मन नहीं हूं इसका स्पष्ट अनुभव हो जाता है। और अंतिम अनुभव होता है कि मैं श्वास भी नहीं हूँ।
अब मौन हो जाओगे। गुनगुनाओगे भीतर – भीतर, मीठा – मीठा स्वाद लोगे, नाचोगे मस्त होकर, बांसुरी बजाओगे, पर कह न पाओगे।
~ ओशो ~