जानियें क्या है योग दीक्षा
परम पवित्र योग दीक्षा संस्कार का विधान समस्त पापों की शुद्धि करने वाला है. योग दीक्षा के दौरान जिसके प्रभाव से साधक पूजा अदि में उत्तम अधिकार प्राप्त कर लेता है उसे संस्कार कहते हैं. संस्कार का अर्थ है शुद्धि करना. योग दीक्षा का यह संस्कार विज्ञान देता है और पाश बंधन को क्षीण करता है, इसीलिए इस संस्कार को दीक्षा कहते हैं. शिव पुराण के अनुसार यह दीक्षा शाम्भवी, शाक्ति और मान्त्रि तीन प्रकार की होती है.
१. शाम्भवी दीक्षा : गुरु के दृष्टिपात मात्र से, स्पर्ष से तथा बातचीत से भी जीव को पाश्बंधन को नष्ट करने वाली बुद्धि एवं ईश्वर के चरणों में अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है. प्रकृति (सत, रज, तम गुण), बुद्धि (महत्तत्त्व), त्रिगुणात्मक अहंकार एवं शब्द, रस, रूप, गंध, स्पर्श (पांच तन्मात्राएँ), इन्हें आठ पाश कहा गया है. इन्हीं से शरीरादी संसार उत्पन्न होता है. इन पाशों का समुदाय ही महाचक्र या संसारचक्र है. और परमात्मा इन प्रकृति आदि आठ पाशों से परे है. गुरु द्वारा दी गई योग दीक्षा से यह पाश क्षीण होकर नष्ट हो जाता है. इस दीक्षा के दो भेद हैं :- तीव्रा और तीव्रतरा. पाशों के क्षीण होने में जो मंदता (धीमापन) या शीघ्रता (जल्दी) होती है उसी के अनुसार यह दो भेद हैं. जिस दीक्षा से तत्काल शांति मिलती है उसे तीव्रतरा कहते हैं और जो धीरे-धीरे पाप की शुद्धि करती है वह दीक्षा तीव्रा कहलाती है. शाम्भवी दीक्षा का उदाहरण है रामकृष्ण परमहंस द्वारा स्वामी विवेकानंद को अंगूठे के स्पर्श से परमात्मा का अनुभव करवाना.
२. शाक्ती दीक्षा :- गुरु योगमार्ग से शिष्य के शारीर में प्रवेश करके उसके अंतःकरण में ज्ञान उत्पन्न करके जो ज्ञानवती दीक्षा देते हैं, वह शाक्ती दीक्षा कहलाती है.
३. मान्त्री दीक्षा :- मान्त्री दीक्षा में पहले यज्ञमंडप और हवनकुंड बनाया जाता है. फिर गुरु बाहर से शिष्य का संस्कार (शुद्धि) करते हैं. शक्तिपात के अनुसार शिष्य को गुरु का अनुग्रह प्राप्त होता है. जिस शिष्य में गुरु की शक्ति का पात नहीं हुआ, उसमें शुद्धि नहीं आती, उसमें न तो विद्या, न मुक्ति और न सिद्धियाँ ही आती हैं. इसलिए शक्तिपात के द्वारा शिष्य में उत्पन्न होने वाले लक्षणों को देखकर गुरु ज्ञान अथवा क्रिया द्वारा शिष्य की शुद्धि करते हैं. उत्कृष्ट बोध और आनंद की प्राप्ति ही शक्तिपात का लक्षण (प्रतीक) है क्योंकि वह परमशक्ति प्रबोधानन्दरूपिणी ही है. आनंद और बोध का लक्षण है अंतःकरण में सात्विक विकार का उत्पन्न होना. जब अंतःकरण में सात्विक विकार उत्पन्न होता है या वह द्रवित होता है तो बाह्य शारीर में कम्पन, रोमांच, स्वर-विकार (कंठ से गदगद वाणी का प्रकट होना), नेत्र-विकार (आँखों से आंसू निकलना) और अंगा-विकार (शारीर में जड़ता तथा पसीना आना आदि) प्रकट होते हैं.
शिष्य भी ईश्वर पूजन के समय गुरु के साथ रहकर या सदा उनके साथ रहकर उनमें प्रकट होने वाले इन लक्षणों से गुरु की परीक्षा करे. यदि गुरु में ये लक्षण प्रकट होते हों तो उन्हें साक्षात् ईश्वर का ही स्वरुप मानकर उनका शिष्यत्व ग्रहण करें. अन्यथा किसी और गुरु की खोज करें या स्वयं भगवन को ही अपना गुरु मानकर साधना आरंभ करें.
डॉ.दीनदयाल मणि त्रिपाठी
प्रबन्ध सम्पादक