जानिये कहाँ है पाताल देश
यह यूरोप का मिथ्याभिमान है कि कोलंबस ने अमेरिका की खोज की, अथवा हालैंड के वाइकिंग ने उस भूमि पर प्रथम पग रखा।
यह ‘पाताल देश’ भारत के लिए नयी दुनिया कभी न था। जब पहले-पहल यूरोपीय मध्य एवं दक्षिण अमेरिका पहुँचे तो हाथी के सिर और सूँड़ की मूर्ति देखकर चकित हो गए। कारण, हाथी अमेरिका में नहीं पाया जाता। ऎसा ही एक उकेरा चित्र पेरू के संग्रहालय में है, जिसमें गले में सर्प धारण किए जटाजूटधारी देवता एक सूँड़धारी युवक को आशीर्वाद दे रहा है। शिव से आशीर्वाद प्राप्त करते गणेश के इस चित्र को ‘प्रेरणा प्राप्त करता हुआ इन्का (Inca, Inga)’ कहा गया।
इसी प्रकार ग्वाटेमाला (Guatemala) के पूर्व एक हाथी पर बैठे देवता की मूर्ति है। यह ऎरावत पर आसीन इंद्र यहाँ कैसे प्रकट हुए ? शिव एवं गणेश जी और इंद्र इस अनजानी नई दुनिया में कैसे अवतरित हुए? यह उन स्वर्ण-लोभी, दंभी और बर्बर यूरोपवासियों की समझ में न आया जो लूट-खसोट करने अमेरिका पहुँचे थे।
महाभारत में पाताल देश के राजा का युद्घ में भाग लेने का उल्लेख है और वर्णन है ‘मय ‘ दावन का, जिसने इंद्रप्रस्थ में अपने पाताल देश से लाए रत्नों से जटित पांडवों के अभूतपूर्व राजप्रासाद का निर्माण किया। जब स्पेनवासी मध्य तथा दक्षिण अमेरिका पहुँचे तो उनके रत्नजटित एवं स्वर्णमंडित मंदिर देखकर दंग रह गए।
विष्णु पुराण में पृथ्वी के दूसरी ओर के सात क्षेत्रों का वर्णन है- अतल, वितल, नितल, गर्भास्तमत (भारत के एक खंड को भी कहते हैं), महातल, सुतल और पाताल। उसके अनुसार वहाँ दैत्य, दानव, यक्ष, नागों और देवताओं का निवास है। नारद मुनि वहाँ से लौटकर देवताओं से वर्णन करते हैं ‘इंद्र की अमरावती से भी सुंदर पाताल देश’ का।
आज हम नहीं जानते कि पूथ्वी के दूसरी ओर के अन्य क्षेत्र कौन हैं, पर मध्य अमेरिका एवं दक्षिण अमेरिका का उत्तरी-पश्चिमी भाग (जिसमें आज उत्तर- पश्चिम कोलंबिया, इक्वाडोर, पेरू तथा उत्तरी चायल के आसपास का क्षेत्र है) की प्राचीन सभ्यता के भारतीय लक्षणों को देखते हुए उसकी पहचान संस्कृत वाङ्मय में वर्णित ‘पाताल’ से हो जाती है।
मध्य अमेरिका का परंपरागत विश्वास है कि उनके पूर्वज एक दूरस्थ प्राची देश (Orient), जिससे बृहत्तर भारत अर्थात भारत सहित दक्षिण-पूर्व एशिया का बोध होता है, से आए। स्पेनवासियों के मेक्सिको पहुँचने पर उनके राजा (Monetzuma) ने कहा था कि उनके गोरे पूर्वज (‘पीत’ नहीं) जलमार्ग से महासागर पार कर आए।
इसी प्रकार इन्का किंवदंती है कि उनके ‘अय्यर’ (Ayer) राजा, जिन्होंने सहस्त्राब्दि से अधिक राज्य किया, मध्य अमेरिका से सूर्य देवता की कृपा से अवतरित हुए। ‘अय्यर’ राजा, अर्थात दक्षिण भारत के ‘अय्यर ब्राम्हण’, जिन्होंने अमेरिका को जीवन- पद्घति दी, छोटे-छोटे नगर, खंड और समाज के हर वर्ग को स्वायत्त शासन दिया, विज्ञान तथा पंचांग दिया और दिया गणित में स्थानिक मान एवं शून्य की कल्पना।
स्पेन निवासियों ने मध्य अमेरिका के कैरीबियन (Caribbean Sea) तट पर घास- फूस से छाए मिट्टी से निर्मित ‘मय’ (Maya) लोगों के मकान देखे, वैसे ही जैसे आज भी दक्षिण भारत के सागर-तट पर छोटी-छोटी बस्तियों में देख सकते हैं। उन्होंने उस सुसंस्कृत समाज को आदिम, अविकसित और जंगली समझा। इसीलिए वे उच्च भूमि पर बने सुनियोजित वर्गाकार नगर, जिनकी चौड़ी वीथिकाएँ एक-दूसरे को लंब रूप में काटती हैं और जिनमें अर्द्घ-पिरामिड सदृश चबूतरों के ऊपर देवताओं की आकृतियाँ और मंदिर थे, जो वेधशाला के रूप में भी काम आते थे, और बड़े सभ्यता के अंग हैं। इन सभ्यताओं की जीवन-पद्घति में भारत की झलक है।
शरद हेबालकर ने अपनी पुस्तक में इन मिट्टी से बनी दीवारों और घास-फूस के छप्परों के बीच पलते जीवन का वर्णन किया है,
‘आदर्श भारतीय गृहिणी का आतिथ्य मेक्सिको की इन झोंपड़ियों में देखने को मिलेगा। यदि भोजन करने बैठे तो मेज-कुरसी छोड़ चटाई पर बैठकर थाली रखी जाएगी।– उसमें होगी बेलन से चकले पर बेली और व्यवस्थित सें की गोल रोटी (खमीरी नहीं) और साथ में खाने के लिए बढ़िया छौंकी हुयी दाल।’ उनका भोजन है चकला-बेलन पर बनी मक्का की रोटी, दाल, सेम आदि का साग और चटनी- जैसे भारत में लेते हैं। आगे कहा है,
‘ये मेक्सिको वासी स्वभास व चाल-चलन से पूर्ण भारतीय हैं।
अमेरिका का सच्चा वैभव है मेक्सिको, ग्वाटेमाला (Guatemala= गौतमालय), पेरू और बोलीविया प्रदेशों की प्राचीन संस्कृतियाँ; और ये अपना नाता भारतीय संस्कृति से बताती हैं।’
अमेरिका के प्राचीन सांस्कृतिक जीवन में भारत की झलक दिखती है, जैसे हिंदुओं ने उन्हें संस्कृति के प्रथम दर्शन कराए हों। भारतीय संस्कृति के दूतों से उन्होंने खेती करना सीखा।आज पुरातत्वज्ञ यह विश्वास करते हैं कि कपास की खेती और उपयोग भारत ने सारे संसार को दिया।
अमेरिका निवासियों ने भी इन भारतीय पथ-प्रदर्शकों से वस्त्र पहनना सीखा। और उन्हें मिला एक समाज के रूप में सामूहिक जीवन और टोलियों में रहनेवाले तथा अनजान भाषाएँ बोलनेवालों को एकता में आबद्घ करती जीवन-पद्घति। यह चमत्कार भारतीय संस्कृति के दूतों ने विक्रम संवत् के लगभग पंद्रह सौ वर्ष पूर्व अथवा उसके भी पहले करके दिखाया।
चक्रपाणि त्रिपाठी
( धर्म शास्त्र विशेषज्ञ )