जानिये गणेश जी के चार स्वरूप को
धर्म शास्त्रों में गणेश जी के ४ रूप है –
(१) विद्या रूप – विद्या दो प्रकार की है, जो प्रत्यक्ष वस्तु दीखती है, उनकी गणना। जिसकी गणना की जा सके, वह गणेश है। अतः गणपति अथर्वशीर्ष में कहा है-त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्माऽसि….। जो भाव रूप है या नहीं गिना जा सके वह रसवती = सरस्वती है। इनके बीच में पिण्डों के निकट रहने से उनको मिला कर एक रूप होने का बोध होता है-जैसे दूर-दूर के तारों में आकृति की कल्पना, या डौट-मैट्रिक्स प्रिण्टर में अलग -अलग विन्दुओं के मिलने से अक्षर की आकृति। ये विन्दु स्वेद (स्याही फैलने से) मिल जाते हैं अतः स्वेद ब्रह्म या सु-ब्रह्म हैं। अलग अलग पिण्डों का समूह प्रत्यक्ष (दृश्य) ब्रह्म है। ॐ ब्रह्म ह वा इदमग्र आसीत्… तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य सन्तप्तस्य ललाटे स्नेहो यदार्द्र्यमजायत। महद् वै यक्षं सुवेदं अविदामह इति। .. एतं सुवेदं सन्तं स्वेद इति आचक्षते॥१॥ सर्वेभ्यो रोमगर्त्तेभ्यः स्वेदधाराः प्रस्यन्दन्त। … अहं इदं सर्वं धारयिष्यामि…. तस्मात् धारा अभवन्॥२॥ (गोपथ ब्राह्मण पूर्व १/१-२)
दृश्य जगत् के ४ व्यूह (क्षर, अक्षर, अव्यय और परात्पर, यापाञ्चरार के वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध) हैं और उनसे विश्व का भद्र बना है अतः गणेश पूजा भाद्र शुक्ल चतुर्थी को होती है। विश्व का मूल अव्यक्त रस है, अतः वेदाङ्ग ज्योतिष में प्रथम मास माघ था अतः माघ में होता है। विद्या का वर्गीकरण अपरा-विद्या (= अविद्या) रूप में ५ स्तर का है, अतः सरस्वती पूजा माघ शुक्ल पञ्चमी को है। पुर रूप में दृश्य तत्त्व पुरुष है, अतः गणेश पुरुष देवता हैं। रस रूप केवल क्षेत्र दीखता है, जो स्त्री या श्री है अतः रस-विद्या स्त्री रूप सरस्वती है। दोनों विपरीत रूप संवत्सर के विपरीत विन्दुओं पर ६ मास के बाद आते हैं।
दो प्रकार के विद्या रूपों की स्तुति से तुलसीदास जी ने रामचरितमानस आरम्भ किया है-वर्णानां अर्थ संघानां रसानां छन्दसां अपि। मङ्गलानां च कर्त्तारौ, वन्दे वाणी विनायकौ॥ यहां वर्णों, का संघ प्रथम संख्येय अनन्त है, अर्थ असंख्येय अनन्त हैं और रस या भाव अप्रमेय अनन्त हैं-अनन्त के ये ३ शब्द विष्णु-सहस्रनाम में प्रयुक्त हैं।
(२) मनुष्य रूप – ब्रह्मा द्वारा लिपि निर्धारित करने के लिये जिनको अधिकृत किया गया उनको गणपति, अङ्गिरा, वृहस्पति आदि कहा गया है। ये अलग अलग युगों में भिन्न व्यक्ति थे।
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे, कविं कवीनामुपमश्रवस्तम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणा ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नृतिभिः सीद सादनम्॥१॥
विश्वेभ्यो हित्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत् साम्नः साम्नः कविः।
मूल लिपि ऋण चिह्न (रेखा—-) तथा चिद्-ऋण (रेखा का सूक्ष्म भाग विन्दु) के मिलन से बना था। देवों के लक्षण रूप वर्ण बने, ३३ देवों के लक्षण क से ह तक ३३ व्यञ्जन थे, १६ स्वर मिला कर ४९ मरुत् हैं, तथा ३ संयुक्ताक्षर क्ष, त्र, ज्ञ मिला कर क्षेत्रज्ञ (आत्मा) है। बाकी वर्ण अ से ह तक अहम् (स्वयम्) हैं। विन्दु-रेखा के ३ जोड़े २ घात ६ = ६४ प्रकार के चिह्न बना सकते हैं, प्राचीन चीन की इचिंग लिपि, टेलीग्राम का मोर्स कोड या कम्प्यूटर की आस्की लिपि। अतः ब्राह्मी लिपि में ६४ वर्ण हैं। आकाश में छन्द माप से सौर मण्डल का आकार ३३ धाम है-३ पृथ्वी के भीतर और ३० बाहर, इनके पाण ३३ देवता हैं। ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) का आकार ४९ है, प्रत्येक क्षेत्र १ मरुत् है, उसका आभा-मण्डल या गोलोक की माप ५२ है अतः इस प्रकार के देव रूप वर्णों का न्यास या नगर देवनागरी कहलाता है।
स ऋणया चिदृणया ब्रह्मणस्पतिर्द्रुहो हन्तमह ऋतस्य धर्तरि॥१७॥ (ऋक् २/२३/१, १७)
देवलक्ष्मं वै त्र्यालिखिता तामुत्तर लक्ष्माण देवा उपादधत…. (तैत्तिरीय संहिता ५/२/८/३)
(३) राज्य प्रमुख रूप – देश के लोगों का समूह गण है, उसका मुख्य गणेश या गणपति है। जैसे हाथी सूंढ़ से पानी खींचता है उसी प्रकार राजा भी प्रजा से टैक्स वसूलता है। मनुष्य हाथ से काम करता है अतः यह कर हुआ। हाथी का काम सूंढ़ से होता है, अतः वह भी कर हुआ। सूंढ़ क्रिया जैसा टैक्स वसूलते हैं, अतः टैक्स भी कर हुआ। कर वसूलने वाला या हाथी कराट है-
तत् कराटाय च विद्द्महे हस्तिमुखाय धीमहि , तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ।
(कृष्ण यजुर्वेदः – मैत्रायणी शाखा – अग्निचित् प्रकरणम् -११९ -१२०)
(४) विश्व रूप में गणेश – प्रत्यक्ष पिण्डों का समूह गणेश है। पिण्ड रूप में स्वयम्भू मण्डल में १०० अरब ब्रह्माण्ड हैं, हमारे ब्रह्माण्ड में १०० अरब तारा हैं और इनकी प्रतिमा रूप मनुष्य के मस्तिष्क में १०० अरब कलिल (सेल) हैं, जो लोम का मूल होने से लोमगर्त्त कहे जाते हैं। जितने लोमगर्त्त शरीर में हैं उतने ही १ वर्ष मॆं हैं, ऐसा काल-मान भी लोमगर्त्त कहलाता है जो १ सेकण्ड का प्रायः ७५,००० भाग है। यह मुहूर्त्त को ७ बार १५ से विभाजित करने पर मिलता है। पुनः १५ से विभाजित करने पर स्वेदायन है, जो बड़े मेघ में जल विन्दुओं की संख्या है या उनके गिरने की दूरी (इतने समय में प्रकाश प्रायः २७० मीटर चलता है, उतनी दूरी तक हवा में वर्षा बून्दें अपना रूप बनाये रखतीं हैं–
पुरुषोऽयं लोक सम्मित इत्युवाच भगवान् पुनर्वसुः आत्रेयः, यावन्तो हि लोके मूर्तिमन्तो भावविशेषास्तावन्तः पुरुषे, यावन्तः पुरुषे तावन्तो लोके॥ (चरक संहिता, शारीरस्थानम् ५/२)
एभ्यो लोमगर्त्तेभ्य ऊर्ध्वानि ज्योतींष्यान्। तद्यानि ज्योतींषिः एतानि तानि नक्षत्राणि। यावन्त्येतानि नक्षत्राणि तावन्तो लोमगर्त्ताः। (शतपथ ब्राह्मण १०/४/४/२)
पुरुषो वै सम्वत्सरः॥१॥ दश वै सहस्राण्यष्टौ च शतानि सम्वत्सरस्य मुहूर्त्ताः। यावन्तो मुहूर्त्तास्तावन्ति पञ्चदशकृत्वः क्षिप्राणि। यावन्ति क्षिप्राणि, तावन्ति पञ्चदशकृत्वः एतर्हीणि। यावन्त्येतर्हीणि तावन्ति पञ्चदशकृत्व इदानीनि। यावन्तीदानीनि तावन्तः पञ्चदशकृत्वः प्राणाः। यावन्तः प्राणाः तावन्तो ऽनाः। यावन्तोऽनाः तावन्तो निमेषाः। यावन्तो निमेषाः तावन्तो लोमगर्त्ताः। यावन्तो लोमगर्त्ताः तावन्ति स्वेदायनानि। यावन्ति स्वेदायनानि, तावन्त एते स्तोकाः वर्षन्ति। (शतपथ ब्राह्मण १२/३/२/५)
अतः गणेश को खर्व (१०० अरब) कहते हैं-खर्व-स्थूलतनुं गजेन्द्र वदनं …। यहां खर्व का अन्य अर्थ कम ऊंचाई का व्यक्ति भी है।
पूरा विश्व ब्रह्म का १ ही पाद है-पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि (पुरुष सूक्त ३)। बाकी ३ पाद का प्रयोग नहीं हुआ अतः वह ज्यायान (भोजपुरी में जियान = बेकार) है। वह बचा रह गया अतः उसे उच्छिष्ट गणपति कहते हैं।
विश्व के सभी पिण्ड ब्रह्माण्ड, तारा, ग्रह, उपग्रह गोलाकार हैं, अतः गणेश का शरीर भी गोल बड़े पेट का है। भौतिक विज्ञान में जितने भी भिन्न दिशा के बलों का संयोग (त्रि-विक्रम) है, वह दाहिने हाथ की ३ अंगुलियों से निर्देशित होता है अतः इसे दाहिने हाथ के अंगूठे का नियम कहते हैं। स्क्रू या बोतल की ठेपी (ढक्कन) दाहिने हाथ से घुमाने पर ऊपर उठता है। गणेश की सूंढ भी इस दिशा में ( बायीं तरफ) मुड़ी है, उस दिशा में ठेपी घुमाने पर वह ऊपर उठेगा।
श्री अरुण कुमार उपपाध्याय ( धर्म शास्त्र विशेषज्ञ )