माता सीता त्याग घटना का विश्लेषण
श्रीराम द्वारा सीतात्याग के विषय में अनेक भ्रान्तियां फैल रही हैं । धोबी इसमें मुख्य कारण है –ऐसा बहुत लोग भाषा ग्रन्थों का प्रमाण देकर कहते हैं । श्रीरामचरित के उपस्थापन में सर्वाधिक प्रामाण्य वाल्मीकि रामायण का ही है । उसमें और रामचरितमानस इन दो ग्रन्थों में ही यह प्रमाण मिलता है –ऐसा कुछ सुधीजन कहते हैं । किन्तु ऐसा नही है । यत्र तत्र पुराणों में तथा विशेषरूप से पुराणोत्तम भागवतमहापुराण के 9म स्कन्ध में भी सीतात्याग की चर्चा मिलती है–11अध्याय, इसलिए वाल्मीकि के उत्तरकांड को प्रक्षिप्त मानने पर भी यह आरोप लगाया जा सकता है ।
प्रश्न यह है कि सीतात्याग उचित था या नहीं ? यदि श्रीराम व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित होकर ऐसा करते हैं तो एक गर्भवती शुद्ध सदाचारिणी पत्नी का त्याग कभी भी उचित नही कहा जा सकता । देखें श्रीराम किस स्थिति में यह कदम उठाने को विवस हुए ।
श्रीराम के उदात्त चरित की एक प्रमुख विशेषता है कि वे जो भी कह देते हैं उससे पीछे नही हटते चाहे इसके लिए उन्हे अपने जीवन का तथा सीता या लक्ष्मण का ही त्याग क्यों न करना पड़े ।
श्रीराम कहते हैं –हे सीते ! मैं अपने प्राणों का त्याग कर सकता हूं ,लक्ष्मण के सहित तुम्हारा भी त्याग कर सकता हूं किन्तु अपनी प्रतिज्ञा नही छोड़ सकता । यदि वह विशेष करके ब्राह्मण के लिए हो तब तो कहना ही क्या–
-अप्यहं जीवितं जह्यां त्वां वां सीते सलक्ष्मणाम्।
नतु प्रतिज्ञां संश्रुत्य ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः । । –वा0रा0–अरण्यकांड-10/18-19,यहां अपने प्राणों के त्याग की बात श्रीराम ने पहले कही फिर बाद में लक्ष्मण सहित सीता जी के त्याग को कहा । इससे सिद्ध हो रहा है कि उन्हे जानकी जी प्राणों से भी अधिक प्यारी थीं। अतएव आगे कह भी रहे हैं कि तुम मेरे प्राणों से भी बढ़कर हो –सधर्मचारिणी मे त्वं प्राणेभ्योऽपि गरीयसी ।। 29,श्रीराम के ये दोनो वाक्य अरण्यकांड के हैं, उत्तरकांड या तुलसीकृत मानस के नही । । और साथ ही यह भी ध्यान रखना है कि श्रीराम ने प्राणों से भी अधिक प्रिय इन दोनो लक्ष्मण और सीता का त्याग भी किया है । वे एक अद्भुत पराक्रमी सम्राट् थे । अपनी शक्ति का प्रयोग करके राजद्रोह या मानहानि के अपराध में एक धोबी को मृत्युदण्ड दे सकते थे । पर बात यहां सीता और धोबी की नही थी और होती भी तो जिसकी पवित्रता प्रमाणित हो चुकी है उसे धोबी के कहने पर निर्वासित न करके धोबी को ही को ही मान हानि या राजद्रोह के अपराध में कम से कम निर्वासित तो कर ही सकते थे। किन्तु ऐसा कुछ भी नही हुआ;क्योंकि ये सब कारण थे ही नही ।
सीतानिर्वासन के मूलकारण पुरवासी
वाल्मीकि रामायण उत्तरकांड सर्ग 43 में इस विषय को सुस्पष्ट किया गया है । भद्र नामक अनुचर से श्रीराम कहते हैं कि तुम शुभ अशुभ जो भी पुरवासी जनपदवासी कहते हों सब बताओ ;क्योंकि राजा वन या नगर कही भी रहे उसपर लोग टिप्पणी करते ही हैं । अनुचित आचरण जान लेने पर हम उसका त्याग कर देंगे । निर्भय होकर बताओ । इस प्रकार आश्वस्त किये जाने पर भद्र ने कहा कि महाराज! चौराहे बाजारों गलियों वनों और उपवनों में सर्वत्र पुरवासी यही कहते हैं कि समुद्र पर पुल बांधकर त्रिलोकविजेता रावण को मारकर श्रीराम ने बड़ा दुष्कर कार्य किया है पर रावण ने जिन सीता को बलपूर्वक उठाकर गोद में बिठाकर लंका (अन्तःपुर) ले गया पुनः अशोकवाटिका में भेजा। उन्ही सीता को राम अपने महल ले आये । पता नही उन्हे सीता से क्या सुख मिलता है ? अब तो हम लोगों को भी अपनी अपनी स्त्रियों के विषय में यह सब सहन करना पड़ेगा । राजा जैसा करता है प्रजा भी उसी मार्ग पर चलती है “।
यहां पुरवासी –कीदृशं हृदये तस्य सीतासम्भोगजं सुखम् –उ0का044/17,कहकर न्याय का सभी मार्ग बन्द कर दिये । श्रीराम लोकापवाद के भय से कांप उठे ऐसी स्थिति में प्रत्येक मनस्वी की यही मनोदशा होगी । अन्ततः वाल्मीकि महर्षि के आश्रम के पास जानकी जी को भिजवा दिया । उन महाभागा ने भी कहा था कि जैसे भाइयों के प्रति महाराज का प्रेममय व्यवहार है वैसा ही पुरवासियों के प्रति भी रखें । इससे उन्हे महान् कीर्ति की प्राप्ति होगी ।
जानकी जी के इस सन्देश से अभिव्यक्त हो रहा है कि वे अपने पति के प्रेम और विवशता को कितनी गम्भीरता से ले रही हैं । अतः सीता त्याग धोबी के कहने से नही अपितु एक विराट समूह =पुरवासियों के कहने से हुआ । जनकपुत्री वनवासिनी वन कर रहने लगीं तो श्रीराम भी दूसरा विवाह नही किये सुखों को त्यागकर 13 हजार वर्ष पर्यन्त अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किये — तत ऊर्ध्वं ब्रह्मचर्यं धारयन्नजुहोत्प्रभुः । त्रयोदशाब्दसाहस्रम्– । पत्नी भी पिता के घर नही गयी । यह एक सम्राट और साम्राज्ञी का प्रजा के प्रति त्याग का अनुपम उदाहरण है । जिसे आज के नारकी नही समझ पा रहे हैं ।
जय माणिक्य शास्त्री ( धर्म शास्त्र विशेषज्ञ )