रुढि वाद और रीवाज कब तक शास्त्रसम्मत है ?
महर्षि पारस्कर आदि कहते हैं –”ग्रामवचनं च कुर्युः”-।। 11।। “विवाहश्मशानयोर्ग्रामं प्राविशतादिति वचनात् ‘।।12।।“तस्मात्तयोर्ग्रामः प्रमाणमिति श्रुतेः ।।1—–प्रथमकाण्ड, अष्टमी कण्डिका । पारस्करगृह्यसूत्र”
विवाह और श्मशान सम्बन्धी कार्यों में ( ग्रामवचनं = स्वकुलवृद्धानां स्त्रीणां वाक्यं कुर्युः ) अपने कुल की वृद्ध महिलाओं की बात मानकर कार्य करना चाहिए । “गदाधरभाष्यकार”भी यही अर्थ किये हैं । इनमें कुछ बातें जैसे “मंगलसूत्र आदि” इनका उल्लेख इसी भाष्य के आधार पर मैने किया है । सूत्र11 में ” च ” शब्द आया है । उससे “देशाचार, कुलाचार और जात्याचार ” का ग्रहण है ।“चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थकः –च शब्द जो बातें नहीं कहीं गयी हैं -उनका संकेतक माना जाता है । अत एव ” च शब्दाद्देशाचारोऽपि ” –ऐसा भाष्य श्रीगदाधर जी ने लिखा । यहां ” अपि ” शब्द कैमुत्यन्याय से कुलाचार और जात्याचार का बोधक है ;क्योंकि विवाहादि कार्यों मेंजाति और कुल के अनुसार भी आचार में भिन्नता कहीं कहीं देखने को मिलती है |
ग्रामवचन का अर्थ “भर्तृयज्ञ ” जो कात्यायन श्रौतसूत्र के व्याख्याता हैं उन्होने लोकवचन किया है –ऐसा गदाधर जी ने अपने भाष्य में संकेत किया है ।इसे लोकमत या शिष्टाचार — सदाचार कहते हैं । यह भी हमारे यहां प्रमाणरूप से अंगीकृत है । पूर्वमीमांसा में सर्वप्रथम प्रमाणों की ही विशद चर्चा हुई है । इसलिए उस अध्याय का नाम ही “प्रमाणाध्याय “रख दिया गया है । इसमें शिष्टाचार को प्रमाण माना गया है । शिष्ट का लक्षण वहांनिरूपित है ।” वेदः स्मृतिः सदाचारः ” –मनुस्मृति,2/12,तथा “श्रुतिःस्मृतिः सदाचारः “–याज्ञवल्क्य स्मृति-आचाराध्याय,7, इन दोनों में सदाचार को धर्म में प्रमाण माना है ।किन्तु धर्म में परम प्रमाण भगवान् वेद ही हैं । उनसे विरुद्ध समृति या सदाचार प्रमाण नही हैं । पूर्वमीमांसा में वेदैकप्रमाणगम्य धर्म को बतलाया गया –जैमिनिसूत्र-1/1/2/2, पुनः ” स्मृत्यधिकरण “-1/3/1/2, से वेदमूलक स्मृतियों को धर्म में प्रमाण माना गया । यदि कोई स्मृति वेद से विरुद्ध है तो वह धर्म में प्रमाण नही हो सकती –यह सिद्धान्त” विरोधाधिकरण “-1/3//2/3-4, से स्थापित किया गया ।
इसी अधिकरण में सदाचार की प्रामाणिकता को लेकर यह निश्चित किया गया कि सदाचार स्मृति से विरुद्ध होने पर प्रमाण नही है ।
तात्पर्य यह कि सदाचार से उसकी ज्ञापक स्मृति का अनुमान किया जाता है और उस स्मृति सेतद्बोधक श्रुति का अनुमान । जब आचार की विरोधिनी स्मृति बैठी है तो उससे वह बाधित हो जायेगा । इसी प्रकार स्मृति भी स्वतः धर्म में प्रमाण नही है अपितु वेदमूलकत्वेन ही प्रमाण है । स्मृति से श्रुति का अनुमान किया जाता है । जब स्मृति विरोधिनी श्रुति प्रत्यक्ष उपलब्ध है तो उससे स्मृति बाधित हो जायेगी –” विरोधे त्वनुपेक्षं स्यादसति ह्यनुमानम् “–पूर्वमीमांसा,1/3/2/3, सदाचार से स्मृति और स्मृति से श्रुति का अनुमान होता है । इन तीनों में श्रुति से स्मृति और स्मृति से सदाचार रूपी प्रमाण दुर्बल है । निष्कर्ष यह कि स्मृति या वेदविरुद्ध आचार प्रमाण नही है । अब हम यह देखेंगे कि विवाह में जो फेरे पड़ते हैं –4 या 7, इनमें किसको स्मृति या वेद का समर्थन प्राप्त है और कौन इनसे विरुद्ध है ? यहां यह बात ध्यान में रखनी है कि स्मृति का अर्थ केवल मनु या याज्ञवल्क्य आदि महर्षियों से प्रणीत स्मृतियां ही नहीं अपितु सम्पूर्ण धर्मशास्त्र है — ” श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः “–2/10, धर्मशास्त्र के अन्तर्गत स्मृतियां ,पुराण,इतिहास,कल्पसूत्र आदि आते हैं –यह मीमांसकों का सिद्धान्त है | अतः यह ठीक है । तो मैं उस व्यक्ति से यही कहूंगा कि सदाचार तभी तक प्रमाण है जब तक उसके विरुद्ध कोई स्मृति या श्रुति न हो ।
ॐस्वस्ति
डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी ( प्रबंध सम्पादक )