विद्या-महाविद्या
अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)
निसर्ग या प्रकृति से जो ज्ञान मिलता है वह विद्या है। ज्ञान प्राप्ति के ४ मार्ग होने के कारण ४ वेद हैं तथा विद् धातु के ४ अर्थ हैं। पहले तो किसी वस्तु की सत्ता होनी चाहिये। इसका अर्थ है आकार या मूर्त्ति जिसका वर्णन ऋग्वेद करता है। (विद् सत्तायाम्-पाणिनीय धातु पाठ ४/६०)। उसके बारे में कुछ जानकारी हमारे तक पहुंचनी चाहिये। यह गति है जिसका वर्णन यजुर्वेद करता है। उससे सूचना की प्राप्ति होती है-विद्लृ लाभे (६/४१)। सूचना मिलने पर उसका विश्लेषण पूर्व ज्ञान के आधार पर मस्तिष्क में होता है। यह ज्ञान वहीं तक हो सकता है जहां तक उस वस्तु की महिमा या प्रभाव है। महिमा रूप सामवेद है। विद् ज्ञाने (२/५७)। इन सभी के लिये एक स्थिर आधार (अथर्व = जो थरथराये नहीं) की जरूरत है जो मूल अथर्व वेद है। वस्तु का आकार तभी दीखता है जब उसका रूप परिवेश से भिन्न हो। उसकी गति भी स्थिर आधार की तुलना में होती है। विचार और ज्ञान भी पूर्व सञ्चित ज्ञान (मस्तिष्क या पुस्तक में) तथा समन्वय से विचार करने से होता है। इस रूप में विद् के २ अर्थ हैं-विद् विचारणे (७/१३), विद् चेतनाख्यान निवासेषु (१०/१७७)
४ वेदों के वर्गीकरण का आधार है-
ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/१२/८/१)
कोई वस्तु तभी दीखती है जब वह मूर्ति रूप में हो। अव्यक्त निर्विशेष का वर्णन नहीं हो सकता क्योंकि उसमें कोई भेद नहीं है। पुरुष (व्यक्ति या विश्व) के ४ रूप हैं-केवल स्थूल रूप क्षर दीखता है। अदृश्य अक्षर क्रिया रूप परिचय है-उसे कूटस्थ कहा गया है। इसी का उत्तम रूप अव्यय है-पूरे विश्व के साथ मिला कर देखने पर कहीं कुछ कम या अधिक नहीं हो रहा है। अरात्पर में कोई भेद नहीं है अतः वर्णन नहीं है। वर्णन के लिये भाषा की जरूरत है-उसमें प्रत्येक वस्तु के कर्म के अनुसार नाम हैं या ध्वनि के आधार पर शब्दों को वर्ण (या उनका मिलन अक्षर) में बांटा (व्याकृत) किया है। कुल मिलाकर ६ दर्शन और ६ दर्शवाक् (लिपि) हैं। हनुमान ९ व्याकरण जानते थे-कम से कम उतने प्रकार की भाषा थी। वर्ण-अक्षरों के रूप सदा बदलते रहते हैं, ये भी मूर्ति हैं जिनके बिना कोई मन्त्र नहीं दीखता है। (गीता अध्याय ८, ऋग्वेद १/१६४/४१ में लिपि का वर्गीकरण)
मूल वेद को अथर्व कहते थे-इसे सर्वप्रथम ब्रह्मा ने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को पढ़ाया था। इसकी २ शाखा हुयी-परा विद्या या विद्या जो एकीकरण है। अपरा विद्या या अविद्या वर्गीकरण है। अपरा विद्या से ४ वेद और ६ अङ्ग हुये (मुण्डकोपनिषद् १/१/१-५)। मूल अथर्व के ३ अङ्ग ऋक्-साम-यजु होने पर मूल अथर्व भी बचा रहा। अतः त्रयी का अर्थ ४ वेद हैं-१ मूल + ३ शाखा। इसका प्रतीक पलाश-दण्ड है, जिससे ३ पत्ते निकलते हैं, अतः पलास ब्रह्मा का प्रतीक है और इसका दण्ड वेदारम्भ संस्कार में प्रयुक्त होता है।
अश्वत्थरूपो भगवान् विष्णुरेव न संशयः। रुद्ररूपो वटस्तद्वत् पलाशो ब्रह्मरूपधृक्॥ (पद्मपुराण, उत्तर खण्ड ११५/२२) अलाबूनि पृषत्कान्यश्वत्थ पलाशम्। पिपीलिका वटश्वसो विद्युत् स्वापर्णशफो। गोशफो जरिततरोऽथामो दैव॥(अथर्व २०/१३५/३)
प्राप्त ज्ञान का प्रयोग महाविद्या है क्योंकि अपनी क्रिया से मनुष्य महः (परिवेश को पभावित करता है। यह गुरु परम्परा से ही प्राप्त होता है अतः इसे आगम कहते हैं। स्रोत को शिव, मन को वासुदेव (वास = चिन्तन का स्थान) तथा ग्रहण करने वाले योषा (युक्त होने वाली) को पार्वती कहा है-
आगतं पज्चवक्त्रात्तु, गतं च गिरिजानने। मनं च वासुदेवस्य, तस्मादागम उच्यते॥ (रुद्र यामल)