श्राद्ध तत्व मीमांसा
प्रत्येक शरीर में आत्मा तीन रूप में पाई जाती है,पहली विज्ञान आत्मा दूसरी महान आत्मा और तीसरी भूत आत्मा,विज्ञान आत्मा वह है,तो गर्भाधान से पहले स्त्री पुरुष में संसर्ग की इच्छा उत्पन्न करती है,वह आत्मा रोदसी नामक मंडल से आता है,उक्त मंडल पृथ्वी से सत्ताइस हजार मील दूर है,दूसरी है महान आत्मा वह चन्द्रलोक से अट्ठाइस अंशात्मक रेतस बनाकर आता है,उसी २८ अंश रेतस से पुरुष पुत्र पैदा करता है,तीसरी है भूतात्मा जो माता पिता द्वारा खाने वाले अन्न के रस से बने वायु द्वारा गर्भ पिण्ड में प्रवेश करता है,उससे खाये गये अन्न और पानी की मात्रा के अनुसार अहम भाव शामिल होता है,इसी को प्रज्ञानात्मा तथा भूतात्मा कहते है,यह भूतात्मा पृथ्वी के अलावा किसी अन्य लोक में नही जा सकती है,मृत प्राणी की महानात्मा स्वजातीय चन्द्र लोक में चला जाता है,चन्द्र लोक में उस महानात्मा से २८ अंश रेतस मांगा जाता है,क्योंकि चन्द्रलोक से २८ अंश रेतस लेकर ही वह उत्पन्न हुआ था,इसी अट्ठाइस अंश रेतस को पितृ ऋण कहते है,२८ अंश रेतस के रूप में श्रद्धा नामक मार्ग से भेजे जाने वाले पिण्ड तथा जल आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धा नामक मार्ग का सम्बन्ध मध्यान्हकाल में पृथ्वी से होता है,इसलिये ही मध्यान्हकाल में श्राद्ध करने का विधान है,पृथ्वी पर कोई भी वस्तु सूर्यमण्डल तथा चन्द्रमण्डल के सम्पर्क से ही बनती है,संसार में सोम सम्बन्धी वस्तु विशेषत: चावल और जौ ही है,जौ में मेधा की अधिकता है,धान और जौ में रेतस (सोम) का अंश विशेष रूप से रहता है,अश्विन कृष्ण पक्ष में यदि चावल तथा जौ का पिण्डदान किया जावे तो चन्द्रमण्डल को रेतस पहुंच जाता है,पितर इसी चन्द्रमा के ऊर्ध्व देश में रहते है,
“विदूर्ध्वभागे पितरो वसन्त: स्वाध: सुधादीधीत मामनन्ति”।
अश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की ओर रश्मि तथा रश्मि के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है,श्राद्ध की मूलभूत परिभाषा यह है कि प्रेत और पितर के निमित्त उनकी आत्मा की तृप्ति के लिये श्रद्धा पूर्वक जो अर्पित किया जाता है,वह ही श्राद्ध है। मृत्यु के पश्चात दसगात्र और षोडशी पिण्डदान तक मृत व्यक्ति की प्रे संज्ञा रहती है,सपिण्डन के बाद वह पितरों में सम्मिलित हो जाता है।
पितृ पक्ष में भर में जो तर्पण किया जाता है,उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यायित होता है,पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो जौ या चावल का पिण्डदान देता उसमें रेतस का अंश लेकर चन्द्रलोक में अम्भप्राण का ऋण चुका देता है,ठीक अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से वह चक्र ऊपर की ओर होने लगता है,१५ दिन पश्चात अपना अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से उसी रश्मि के साथ रवाना हो जाता है,इसलिये इसे पितृ पक्ष कहते है,अन्य दिनों में जो श्राद्ध किया जाता है,उसका सम्बन्ध सूर्य की सुषुम्ना नाडी से रहता है,जिसके द्वारा श्रद्धा मध्यान्हकाल में पृथ्वी पर आती है,और यहां से तत पितर का भाग लेजाती है,परन्तु पितृ पक्ष में पितृप्राण चन्द्रमा के ऊर्ध्व देश में रहते है,वे स्वत: ही चन्द्र पिण्ड की परिवर्तित स्थिति के कारण पृथ्वी पर व्याप्त होते है,इसी कारण पितृपक्ष में तर्पण का इतना महात्म्य है।
शास्त्रों में निर्देश है,के माता पिता आदि के निमित्त उनके नाम और उच्चारण मन्त्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है,वह उनको व्याप्त होता है,यदि अपने कर्मों के अनुसार उनको देवयोनि प्राप्त हो तो वह अन्न उन्हे अमृत रूप में प्राप्त होता है,यदि उन्हे गन्धर्व लोक की प्राप्ति हो तो वह अन्न उन्हे भोग्यरूप में उन्हे प्राप्त होता है,यदि वह पशु योनि में हो तो वह अन्न उन्हे तृण रूप में प्राप्त होता है,यदि वह प्रेत योनि में प्राप्त हो तो वह अन्न उन्हे रुधिर रूप में प्राप्त होता है,यदि कर्मानुसार मनुष्य योनि प्राप्त हो तो वह अन्न उन्हे अन्न आदि के रूप में प्राप्त होता है।
श्राद्ध पक्ष की सूचना पाते ही सभी पितृ एक दूसरे का स्मरण करते हुये मनोमय रूप में श्राद्ध स्थल पर उपस्थित होते है,और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में भोजन प्राप्त करते है,किंवदन्ति के अनुसार सूर्य कन्या राशि में आता है,तो पितर अपने पुत्र और पौत्रों के घर जाते है,विशेषत: अश्विन अमावस्या को उनका श्राद्ध नही करने पर वे श्राप देकर लौट जाते है,अत: उन्हे पत्र पुष्प फ़ल और जल तर्पण से यथा शक्ति उन्हे तृप्त करना चाहिये,हमे श्राद्ध विमुख नही होना चाहिये।
॥ कन्यागते सवितरि पितरौ यान्ति वै सुतान,अमावस्या दिने प्राप्ते गृहद्वारं समाश्रिता:,श्रद्धाभावे स्वभवनं शापं दत्वा ब्रजन्ति ते॥
डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी ( प्रबंध सम्पादक )