सात्त्विक भारतीय संस्कृति स्वीकारने से संसार सात्त्विक बनेगा !
कोलकाता – महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय की श्रीमती संदीप कौर मुंजाल ने ‘भारतीय संस्कृति की पाश्चात्यीकरण से रक्षा करना क्यों आवश्यक’,इस विषय पर शोधप्रबंध प्रस्तुत किया । उन्होंने शोधप्रबंध के प्रस्तुतीकरण के समय प्रतिपादित किया कि जागतिकीकरण के कारण भारतीय नागरिक बडी संख्या में पश्चिमी संस्कृति स्वीकार रहे हैं । भारतीयों को अपनी परंपराएं पुरानी और आधुनिक संसार से मेल खाती नहीं लग रही हैं; परंतु अपनी भारतीय रूढि-परम्पराओं को त्यागने से पहले विवेक दृष्टि से यह समझ लेना चाहिए कि ‘भारतीय रूढी और परंपराएं ठोस शास्त्रीय नीव पर खडी हैं तथा आधुनिक रूढियों की अपेक्षा उनका पालन करना अधिक हितकारी है ।’ तब ही भारतीय संस्कृति का महत्व ध्यान में आ पाएगा । भारतीय संस्कृति सत्त्वगुण की वृद्धि करनेवाली है । इसलिए सात्त्विक भारतीय संस्कृति स्वीकारने से संसार सात्त्विक बनेगा । 7 से 9 जनवरी 2019 की अवधि में कोलकाता में संपन्न ‘इंटरनेशनल एंड इंटरडिसिप्लिनरी कॉन्फरेन्स रिजन, कल्चर एंड मोरेलिटी’ अंतरराष्ट्रीय परिषद में श्रीमती मुंजाल बोल रही थीं । इस परिषद के आयोजक ‘दि इन्स्टिट्यूट ऑफ क्रॉस कल्चरल स्टडीज एंड एकेडमिक एक्सेंज’ और ‘दि सोसाइटी फॉर इंडियन फिलॉसफी एंड रिलिजन’ थे । इस शोधप्रबंध के लेखक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी तथा सहलेखक श्रीमती संदीप कौर मुंजाल और श्री. शॉन क्लार्क हैं ।
श्रीमती मुंजाल आगे बताती हैं कि, श्रीमद्भगवद्गीता के 14 वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि, यह सृष्टि सत्त्व, रज और तम इन त्रिगुणों से बनी है तथा इन त्रिगुणों का सीधा परिणाम व्यक्ति, समाज और वातावरण पर होता है । जब समाज की सात्त्विकता बढती है, तब सर्वत्र शांति और समृद्धि सहित आध्यात्मिक उन्नति साध्य होती है । इसके विपरीत जब रज-तम बढता है, तब उसका परिणाम केवल व्यक्ति पर नहीं, अपितु संपूर्ण समाज पर होता है तथा विविध समस्याएं उत्पन्न होती हैं ।
इस शोधप्रबंध में व्यक्ति के दैनिक जीवन के 5 अंगों की पारंपरिक और पाश्चात्त्य रूढी का अध्ययन प्रस्तुत किया गया । यह अध्ययन आधुनिक वैज्ञानिक उपकरण ‘युनिवर्सल थर्मो स्कैनर’, ‘पॉलीकॉन्ट्रास्ट इंटरफेरन्स फोटोग्राफी’ तथा सूक्ष्म परीक्षण के आधार पर किया गया । ये पांच अंग अर्थात स्त्रियों की केशरचना, अलंकारों की बेलबूटी (डिजाइन), आहार, वस्त्रों के रंग और त्यौहार । इस अध्ययन से आगे दिए निष्कर्ष ध्यान में आए –
अ. केश खुले रखने अथवा ‘पोनीटेल’ बांधने की अपेक्षा जूडा अधिक सात्त्विक है ।
आ. सोने के दो हारों की तुलना करने पर सात्त्विक बेलबूटी वाले हार से अधिक सात्त्विक स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं ।
इ. मांसाहार करने से व्यक्ति में नकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है तथा यदि उसमें मूलतः सकारात्मक ऊर्जा हो, तो वह नष्ट हो जाती है
ई. श्वेत रंग सात्त्विक स्पंदन प्रक्षेपित करता है तथा काले रंग से तामसिक स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं ।
उ. नवसंवत्सर (गुडीपडवा) जैसा भारतीय त्यौहार सात्त्विक, तो ‘31 दिसंबर की रात नववर्षारंभ’ यह पाश्चात्य को उत्सव तामसिक है । पाश्चात्य उत्सव भोगवाद के उद्देश्य से मनाए जाते है । इसलिए उन पार्टियों का वर्तन अत्यंत तामसिक होता है । इसके विपरीत नवसंवत्सर (गुडीपडवा) सर्वाधिक सात्त्विक समय पर अर्थात प्रातः पूजन कर तथा नूतन वर्ष के लिए ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त कर मनाया जाता है ।
दैनिक साधना करने से कुछ समय पश्चात व्यक्ति में विविध वस्तु, कृति अथवा घटनाआें के स्पंदन पहचानने की क्षमता निर्माण होती है । इसलिए अपने लिए क्या योग्य या अयोग्य है यह वह स्वयं ही समझ सकता है । ऐसी क्षमता निर्माण होने पर बाह्य बौद्धिक स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं रह जाती । सूक्ष्म स्पंदन पहचान पाने के कारण सात्त्विकता पर आधारित भारतीय पारंपरिक रूढियों के पालन का महत्त्व व्यक्ति समझ जाता है । श्रीमती मुंजाल ने कहा कि समाज निरंतर सात्त्विक रूढियों का पालन करे,तो कुछ समय पश्चात निश्चित ही संपूर्ण संसार सात्त्विक बन जाएगा।
सुन्दर कुमार ( प्रधान सम्पादक )