सामाजिक एकत्व के संस्थापक संत -दादू दयाल
हिन्दी के भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख सन्त कवि थे। इन्होंने एक निर्गुणवादी संप्रदाय की स्थापना की, जो दादू पंथ के नाम से ज्ञात है। वे अहमदाबाद के एक धुनिया के पुत्र और मुगल सम्राट् शाहजहाँ (1627-58) के समकालीन थे। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन राज पूताना में व्यतीत किया एवं हिन्दू और इस्लाम धर्म में समन्वय स्थापित करने के लिए अनेक पदों की रचना की। उनके अनुयायी न तो मूर्तियों की पूजा करते हैं और न कोई विशेष प्रकार की वेशभूषा धारण करते हैं। वे सिर्फ़ राम-नाम जपते हैं और शांतिमय जीवन में विश्वास करते हैं, यद्यपि दादू पंथियों का एक वर्ग सेना में भी भर्ती होता रहा है। भारत के अन्य भक्त और संत की तरह दादू दयाल के जीवन के बारे में भी प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। इनका जन्म, मृत्यु, जीवन और व्यक्तित्व किंवदन्तियों, अफवाहो और कपोल-कल्पनाओं से ढंका हुआ है। इसका एक कारण यह है कि ये संत आम जनता के बीच से उभरे थे।
दादू पेशे से धुनिया थे और बाद में वह धार्मिक उपदेशक तथा घुमक्कड़ बन गए। वह कुछ समय तक सांभर व आंबेर और अंततः नारायणा में रहे, जहाँ उनकी मृत्यु हुई। ये सभी स्थान जयपुर तथा अजमेर (राजस्थान राज्य) के आसपास है। उन्होंने वेदों की सत्ता, जातिगत भेदभाव और पूजा के सभी विभेदकारी आडंबरों को अस्वीकार किया। इसके बदले उन्होंने जप (भगवान के नाम की पुनरावृत्ति) और आत्मा को ईश्वर की दुल्हन मानने जैसे मूल भावों पर ध्यान केंद्रित किया। उनके अनुयायी शाकाहार और मद्यत्याग पर जोर देते हैं और संन्यास दादू पंथ का एक अनिवार्य घटक है। दादू के उपदेश मुख्यतः काव्य सूक्तियों और ईश्वर भजन के रूप में हैं, जो 5,000 छंदों के संग्रह में संगृहीत है, जिसे बानी (वाणी) कहा जाता है। ये अन्य संत कवियों, जैसे कबीर, नामदेव, रविदास और हरिदास की रचनाओं के साथ भी किंचित परिवर्तित छंद संग्रह पंचवाणी में शामिल हैं। यह ग्रंथ दादू पंथ के धार्मिक ग्रंथों में से एक है। आम जनता का विवरण आम तौर पर कहीं नहीं मिलता। यही कारण है कि इन संतों के जीवन का प्रामाणिक विवरण हमें नहीं मिलता। दादू, रैदास और यहाँ तक की कबीर का नामोल्लेख भी उस युग के इतिहास-ग्रंथों में यदा-कदा ही मिलता है। संतों का उल्लेख उनकी मृत्यु के वर्षों बाद मिलने लगता है, जब उनके शिष्य संगठित राजनीतिक-सामाजिक शक्ति के रूप में उभर कर आने लगे थे। इतनी उपेक्षा के बावजूद, दादू दयाल उन कवियों में से नहीं हैं, जिन्हें भारतीय जनता ने भुला दिया हो। आधुनिक शोधकर्ताओं ने अनुसंधान करके ऐसे अनेक विस्मृत कवियों को खोज निकालने का गौरव प्राप्त किया है।
चंद्रिका प्रसाद त्रिपाठी के अनुसार अठारह वर्ष की अवस्था तक अहमदाबाद में रहे, छह वर्ष तक मध्य प्रदेश में घूमते रहे और बाद में सांभर (राजस्थान) में आकर बस गये। यदि दादू का जन्म अहमदाबाद में ही हुआ था, तो वे सांभर कब और क्यों आये। सांभर आने से पहले उन्होंने क्या किया था और कहाँ-कहाँ भ्रमण कर चुके थे। इसकी प्रामाणिक सूचना हमें नहीं मिलती।
जन गोपाल की श्परचीश् के अनुसार दादू तीस वर्ष की अवस्था में सांभर में आकर रहने लगे थे। सांभर निवास के दिनों के बाद की उनकी गतिविधियों की थोड़ी बहुत जानकारी मिलती है। सांभर के बाद वह कुछ दिनों तक आमेर में (जयपुर के निकट) रहे। यहाँ पर अभी भी एक श्दादू द्वाराश् बना हुआ है।
कुछ लोगों का कहना है, दादू ने फतेहपुर सीकरी में अकबर से भेंट की थी और चालीस दिनों तक आध्यात्मिक विषयों की चर्चा भी करते रहे थे। यद्यपि ऐतिहासिक दस्तावेजों में यह जानकारी उपलब्ध नहीं है। यह अनुमान का विषय है। वैसे अकबर ने उस युग के अनेक धार्मिक भक्तों और संतों से विचार-विमर्श किया था। कई हिन्दू संत भी उनसे मिलने गये थे। सम्भव है उनमें दादू भी एक रहे हों और अपने जीवन काल में इतने प्रसिद्ध न होने के कारण उनकी ओर ध्यान केन्द्रित न किया गया हो। अन्य संतों की तरह दादू दयाल ने भी काफी देश-भ्रमण किया था। विशेषकर उत्तर भारत, काशी), बिहार, बंगाल और राजस्थान के भीतरी भागों में लम्बी यात्राएँ की थीं। अन्त में, ये नराणा, राजस्थान में रहने लगे, जहाँ उन्होंने अपनी इहलीला समाप्त की।
संत कवि दादू दयाल का जन्म फागुन सुदी आठ बृहस्पतिवार संवत् 1601 (सन् 1544 ई.) को हुआ था। दादू दयाल का जन्म भारत के राज्य गुजरात के अहमदाबाद शहर में हुआ था, पर दादू के जन्म स्थान के बारे में विद्वान एकमत नहीं है। दादू पंथी लोगों का विचार है कि वह एक छोटे से बालक के रूप में (अहमदाबाद के निकट) साबरमती नदी में बहते हुए पाये गये। दादू दयाल का जन्म अहमदाबाद में हुआ था या नहीं, इसकी प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करने के साधन अब हमारे पास नहीं हैं। फिर भी इतना तो निश्चित है कि उनके जीवन का बड़ा भाग राजस्थान में बीता।
उनके परिवार का सम्बन्ध राजदरबार से नहीं था। तत्कालीन इतिहास लेखकों और संग्रहकर्त्ताओं की दृष्टि में इतिहास के केंद्र राजघराने ही हुआ करते थे। दादू दयाल के माता-पिता कौन थे और उनकी जाति क्या थी। इस विषय पर भी विद्वानों में मतभेद है। प्रामाणिक जानकारी के अभाव में ये मतभेद अनुमान के आधार पर बने हुए हैं। उनके निवारण के साधन अनुपलब्ध हैं। किंवदंतियों के अनुसार दादू कबीर की भाँति ही किसी कुँवारी ब्राह्मणी की अवैध सन्तान थे। यह किंवदंती कितनी प्रामाणिक है और किस समय से प्रचलित हुई है, इसकी हमें कोई जानकारी नहीं है। सम्भव है, इसे बाद में गढ़ लिया गया हो। एक किंवदंती के अनुसार, कबीर की भाँति दादू भी किसी कवाँरी ब्राह्मणी की अवैध सन्तान थे, जिसने बदनामी के भय से दादू को साबरमती नदी में प्रवाहित कर दिया। बाद में, इनका लालन-पालन एक धुनिया परिवार में हुआ। इनका लालन-पालन लोदीराम नामक नागर ब्राह्मण ने किया। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के मतानुसार इनकी माता का नाम बसी बाई था और वह ब्राह्मणी थी। कुछ लोग इसे कपोल कल्पना ही मानते हैं।
दादू के शिष्य रज्जब ने लिखा हैकृ
धुनी ग्रभे उत्पन्नो दादू योगन्द्रो महामुनिः। उतृम जोग धारनं, तस्मात् क्यं न्यानि कारणम्।।
पिंजारा रुई धुननेवाली जाति-विशेष है, इसलिए इसे धुनिया भी कहा जाता है। आचार्य क्षितिजमोहन सेन ने इनका सम्बन्ध बंगाल से बताया है। उनके अनुसार, दादू मुसलमान थे और उनका असली नाम श्दाऊदश् था। दादू दयाल के जीवन की जानकारी दादू पंथी राघोदास श्भक्तमालश् और दादू के शिष्य जनगोपाल द्वारा रचित श्श्री दादू जन्म लीला परचीश् में मिलता है। इसके अलावा दादू की रचनाओं के अन्तःसाक्ष्य के माध्यम से भी, हम उनके जीवन और व्यक्तित्व के बारे में अनुमान लगा सकते हैं।
हिन्दू समाज में परम्परागत रूप से व्यक्ति का परिचय उसके कुल और उसकी जाति से दिया जाता रहा है। जात-पात की व्यवस्था मध्य काल में बहुत सुदृढ़ थी। अधिकांश निर्गुण संत कवि नीची समझी जाने वाली जातियों में हुए थे और वे जात-पात की व्यवस्था के विरोधी थे। लेकिन उनके अपमान का अभिजात समाज जात-पात का कट्टर समर्थक था। इस क्रूर यथार्थ को संत कवि जानते थे। फिर भी, उनके मन में अपनी जाति सम्बन्धी कोई हीन भावना नहीं थी। अतः उन्होंने न तो अपनी जाति को छिपाया और न इसे चरम सत्य मानकर ही पूजते रहे। कई बार स्वयं इनके जिज्ञासु भक्त भी यह पूछ ही लेते थे कि महाराज, आपकी जाति क्या है।
ऐसे जिज्ञासु भक्तों को सम्बोधित करते हुए दादू ने लिखाकृ
दादू कुल हमारे केसवा, सगात सिरजनहार।
जाति हमारी जगतगुर, परमेश्वर परिवार।।
दादू एक सगा संसार में, जिन हम सिंरजे सोइ।।
मनसा बाचा क्रमनां, और न दूजा कोई।।
यहाँ दादू ने अपनी विचार प्रणाली को व्यक्त करते हुए कहा है कि मेरे सच्चे सम्बन्ध तो ईश्वर से हैं। और इसी सम्बन्ध से मेरा परिचय है। परिवार में अपने-पराये की भावना आ जाती है। दादू इसे संसार की श्मायाश् और संसार के श्मोहश् की संज्ञा देते हैं। दादू अपने आपको इनसे मुक्त कर चुके थे, वह संसार में रहते हुए भी सांसारिक बंधनों को काट चुके थे। अतः निरर्थक जात-पात की लौकिक भाषा में अपना वास्तविक परिचय कैसे देते। फिर भी, कई स्थानों पर उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया है कि वे एक पिंजारा हैं। एक पद में उन्होंने लिखा हैकृ
कौण आदमी कमीण विचारा, किसकौं पूजै गरीब पिंजारा।।
मैं जन येक अनेक पसारा, भौजिल भरिया अधिक अपारा।।1
एक होइ तौ कहि समिझाऊँ, अनेक अरुझै क्यौं सुरझाउं।।2
मैं हौं निबल सबल ए सारे, क्यौं करि पूजौं बहुत पसारे।।3
पीव पुकारौ समझत नाही, दादू देषि दिसि जाही।।
इस पद में सामाजिक संवेदना और आध्यात्मिक अनुभव का मिश्रण हुआ है। दादू ईश्वर से मिलना चाहता है, लेकिन यह समाज बाधक बना हुआ है। ईश्वर की दृष्टि में सभी मनुष्य बराबर हों भी तो क्या होता है। समाज तो मुझे सबसे नीच और कमीन कहकर ही पुकारता है। यहाँ ईश्वर से न मिल पाने की निराशा के साथ-साथ सामाजिक अन्याय से आहत हृदय का दर्द भी अभिव्यक्त हो गया है। इस अन्तः साक्ष्य के आधार पर निस्संकोच रूप से यह कहा जा सकता है कि दादू पिंजारा थे। वह मुसलमान थे या नहीं, या उन्होंने इस्लाम में नयी-नयी दीक्षा ले ली थी, जिसके कारण उनमें कुछ हिन्दू संस्कार बच गए थे, पर वह थे मुसलमान ही। इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। सम्भव है, यह उन पर आरोप लगाने के लिए कहा जाता रहा हो। निर्गुण संतों की वर्णाश्रम विरोधी चेतना के प्रभाव को खत्म करने के लिए उन पर इस्लाम के प्रभाव को प्रचारित किया जाता रहा है। इस्लाम चूँकि उस युग का राज-धर्म था, अतः इनको भी तत्कालीन सत्ताधारियों से जोड़कर इनके जन-आधार को संकुचित करने का प्रयास किया गया था। ऐसा अनुमान इसलिए लगाया जा सकता है क्योंकि यही आरोप कबीर पर भी लगाया गया था। उन्होंने अपनी रचनाओं में हिन्दू और तुर्क दोनों के मार्गों को गलत बताया है। उनके शिष्य हिन्दू और मुसलमान दोनों थे। फिर भी, उनके इस्लाम में दीक्षित हो जाने का कोई तर्क-सम्मत कारण नहीं दिखायी देता।
दादू की पत्नी कौन थी, और उसका क्या नाम था, इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। इनके गरीबदास और मिस्कीनदास नामक दो पुत्र और नानीबाई तथा माताबाई नाम की दो पुत्रियाँ थीं। कुछ विद्वान इस बात से असहमत हैं। उनके अनुसार ये उनके वरद पुत्र थे। कुछ लोगों के अनुसार ये उनके शिष्य थे। जनगोपाल के अनुसार दादू तीस वर्ष की अवस्था में सांभर में बस गये और दो वर्ष के बाद, उनके ज्येष्ठ पुत्र गरीबदास का जन्म हुआ।
दादू ने अपनी वाणी में गुरु की महिमा का गान तो बहुत किया है, लेकिन उनका कहीं नाम नहीं लिया है, जिनके ज्ञान के प्रभाव से दादू का व्यक्तित्व लौकिक बाधा-बंधनों को काट सका। दादू ने अपनी रचनाओं में गुरु की महिमा का विस्तार से बखान किया है। अतः यह जानना भी हमारे लिए आवश्यक है कि इनके गुरु कौन थे। लेकिन इस तथ्य की प्रमाणिक जानकारी अनुपलब्ध है। जन गोपाल की श्श्री दादू जन्म लीला परचीश् के अनुसार ग्यारह वर्ष की अवस्था में भगवान ने एक बुद्ध के रूप में दर्शन देकर इनसे एक पैसा माँगा। फिर इनसे प्रसन्न होकर इनके सिर पर हाथ रखा और इनके सारे शरीर का स्पर्श करते हुए इनके मुख में श्सरस पानश् भी दिया। दादू पंथियों के अनुसार बुड्ढन नामक एक अज्ञात संत इनके गुरु थे। जन गोपाल के अनुसार बचपन के ग्यारह वर्ष बीत जाने के बाद, इन्हें बुड्ढे के रूप में गुरु के दर्शन हुए।
वे साक्षर थे या नहीं, इसके बारे में अब भी संदेह बना हुआ है। इनके गुरु, जो अब तक अज्ञात हैं, यदि वे थोड़े बहुत साक्षर रहे भी हों तो भी इतना निश्चित है कि इन्होंने धर्म और दर्शन का अध्ययन नहीं किया था। उनकी रचनाओं का वस्तुगत विश्लेषण इसकी पुष्टि नहीं करता कि उन्होंने धर्म का शास्त्रीय अध्ययन किया था। अन्य निर्गुण संतों की तरह इन्हें भी सत्संग से धर्म-आध्यात्म का ज्ञान मिला था। उन्होंने लिखा हैकृ
हरि केवल एक अधारा, सो तारण तिरण हमारा।।ट
ना मैं पंडित पढ़ि गुनि जानौ, ना कुछ ग्यान विचारा।।
ना मैं आगम जोंतिग जांनौ, ना मुझ रूप सिंगारा।।
ऐसा लगता है कि किसी जिज्ञासु व्यक्ति ने दादू से सीधा सवाल पूछा था कि आपका खाना-पीना कैसे चलता है। आप अपने परिवार का भरण-पोषण कैसे करते हैं। अर्थात आपकी आय के साधन क्या हैं। यहाँ तो चारों तरफ अभाव ही अभाव दिखाई दे रहा है। इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए दादू ने कहा कि राम ही मेरा रोजगार है, वही मेरी सम्पत्ति है, उसी राम के प्रसाद से परिवार का पोषण हो रहा है। इन पंक्तियों से यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि यहाँ पर ऐश्वर्य का बोलबाला नहीं, गरीबी का साम्राज्य है। यह बात यहाँ रेखांकित करने के लायक है कि दादू को अपनी गरीबी से कोई शिकायत नहीं है। इसे सहज जीवन स्थिति मानकर उन्होंने स्वीकार कर लिया है। गरीबी की पीड़ा का बोध और उससे उत्पन्न आक्रोश दादू की रचनाओं में कहीं भी नहीं मिलता। यहाँ कवि राम पर निर्भर है, क्योंकि लौकिक स्थिति अनिश्चित है। जिसे ईश्वर ने माँ के गर्भ में बच्चे के लिए नौ महीने तक भोजन पहुँचा दिया है और जिसने जठराग्नि के बीच उसकी कोमल काया को बचाए रखा है, वह राम न कभी इतना निर्दयी हो सकता है और न इतना अशक्त ही कि वह व्यक्ति को इस संसार में भूख से मार डाले। अतः मनुष्य को खाने-पीने की अभाव की हाय-तौबा नहीं मचानी चाहिये। दादू के अनुसार अपने व्यक्तिगत जीवन की चिन्ता मनुष्य को नहीं करनी चाहिये, स्वयं राम अपने आप मनुष्य की चिनता करता है और करेगा। दादू ने एक साखी में कहा हैकृ
दादू हूंणा था सो होइ रह् या, और न होवै आइ।
लेणा था सो ले रह् या, और न लीया जाइ।
दादू दयाल ने अपने पूर्ववर्ती निर्गुण संतों का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया है। विशेष रूप से उन्होंने नामदेव, कबीर और रैदास के प्रति अगाध श्रद्धा प्रकट की है। दादू दयाल की मृत्यु जेठ बदी आठ शनिवार संवत् 1660 (सन् 1603 ई.) को हुई। जन्म स्थान के सम्बन्ध में मतभेद की गुंजाइश हो सकती है। लेकिन यह तय है कि इनकी मृत्यु अजमेर के निकट नराणा नामक गाँव में हुई। वहाँ श्दादू-द्वाराश् बना हुआ है। इनके जन्म-दिन और मृत्यु के दिन वहाँ पर हर साल मेला लगता है। नराणा उनकी साधना भूमि भी रही है और समाधि भूमि भी। इस स्थान का पारम्परिक महत्त्व आज भी ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। दादू पंथी संतों के लिए यह स्थान तीर्थ के समान है। चूँकि इनके जन्म-स्थान के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती, अतः दादू-पंथी लोग भी किसी स्थान विशेष की पूजा नहीं करते। अन्त में, ये नराणा (राजस्थान) में रहने लगे, जहाँ उन्होंने अपनी इहलीला समाप्त की। दादू की इच्छानुसार उनके शरीर को भैराना की पहाड़ी पर स्थित एक गुफा में रखा गया, जहाँ इन्हें समाधि दी गयी। इसी पहाड़ी को अब श्दादू खोलश् कहा जाता है। जहाँ उनकी स्मृति में अब भी मेला लगा करता है।
नितिन श्रीवास्तव ( सलाहकार संपादक )