सेतुबन्ध के समय भगवान् राम ने कहां बाण छोड़ा
श्रीअरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)—
इस पर कई विचार हैं। दुष्ट लोगों के स्थान के कारण इसे भारत में नहीं, अरब देश में मानते हैं जहां मरुभूमि भी है। मरुकान्तार शब्द के प्रयोग से कुछ लोग मिलता जुलता शब्द मारवाड़ कहते हैं। किन्तु रामेश्वरम् समुद्र के उत्तर तट पर केवल वंग (बंगाल) है। वहां के लोगों को दुष्ट मान कर अंगद ने भी रावण को वंगा कह कर गाली दी थी (रामचरितमानस के अनुसार)।
एहि शर मम उत्तर तट वासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥ (सुन्दर काण्ड, ५९/५)
राम मनुज कस रे सठ बंगा। धन्वी कामु नदी पुनि गंगा॥ (लंका काण्ड, २५/५)
यहां बंगा = (वन + ग) वन में गमन करने वाला, जंगली। बंगाल को वंग भौगोलिक स्थिति के कारण कहते थे। वहां समुद्र तट पर गंगा की कई शाखाओं के कारण छोटे छोटे वन हो गये हैं। ये जल धाराओं से मिले हुए हैं, अतः इसे सुनर-वन कहते थे। मूल वैदिक शब्द सुनर था जो लोकभाषा में सुन्दर हो गया। जो दो मनुष्यों या वनों को मिलाये वह सु-नर है। पति-पत्नी, भक्त भगवान् को मिलाने वाला सु-नर है जैसे अंग्रेजी में विवाह कराने वाले को सुनर (best man) कहते हैं। हनुमान् जी सुनर थे क्योंकि सीता-राम का सन्देश एक दूसरे को पहुंचाया, भक्त विभीषण को भगवान् से मिलाया। अतः उनका चरित्र सुनर काण्ड है। अतः गंगा सागर का वन सुनर वन है जिससे सोनार बंगला हुआ है, वहां कोई सोने की खान नहीं है। सुनर वन का क्षेत्र या निवासी वंग हैं। उसमें समुद्र निकट के दुर्गम द्वीपों में उस समय दस्यु रहते थे। वे समुद्र का जल पीते थे, अर्थात् वह समुद्र के निकट था, बिलकुल समुद्र में नहीं था। राजस्थान का मारवाड समुद्र तट पर नहीं है। अरब का समुद्र तट है पर वह द्रुमयुक्त न पहले था, न बाद में घी-दूध, फल मधु से सम्पन्न हुआ। वह प्रायः दस्यु कर्म पर आश्रित रहा, आजकल पेट्रोल पर।
कुछ लोगों का मत है कि द्रुम शब्द अरब की मुद्रा दिरहम से बना है, अतः द्रुमकुल्य वहीं होना चाहिये। द्रु या द्रुम शब्द का प्रयोग वेद में कई स्थानों पर है। द्रोण (दून, २ पर्वतों के बीच की घाटी) में हरित द्रुम बहुत होते हैं क्योंकि वहां नमी एकत्र हो जाती है। यहां द्रुमकुल्य का अर्थ होगा, समुद्र शाखाओं से घिरे द्रुम वन जो केवल सुन्दर वन में ही है। रामेश्वरम से उत्तर तट पर केवल यही स्थान है। बाण से बना कुंआ अब नहीं है। उत्तर ओड़िशाके समुद्र तट पर एक गांव है, कुपारी (कूप = कुंआ, अकूपार = समुद्र)। द्रुमकुल्य का देश रूप में कही उल्लेख नहीं है। किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४३ में वानरों को उत्तर दिशा में भेजने के समय ऋषीक (रूस), उत्तर कुरु (कुरुक्षेत्र के देशान्तर पर ओम्स्क) का भी उल्लेख है, पर द्रुमकुल्य का नहीं। यह कोई अलग देश नहीं था, सुन्दरवन का तटीय भाग था जहां दुर्गम स्थान होने से जल-दस्यु छिपते थे। भगवान् राम के वरदान के अनुसार यह आज भी हरा-भरा है।
रामायण युद्ध काण्ड, अध्याय-२२-
उत्तरेणावकाशोऽस्ति कश्चित् पुण्यतमो मम।
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान्॥३१॥
उग्रदर्शन कर्माणो बहवस्तत्र दस्यवः।
आभीरप्रमुखाः पापा पिबन्ति सलिलं मम॥३२॥
तैस्तु संस्पर्शनं प्राप्तैर्न संहे पापकर्मभिः।
अमोघः क्रियतां राम तत्र तेषु शरोत्तमः॥३॥
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सागरस्य स राघवः।
मुमोच तं शरं दीप्तं वीरः सागरदर्शनात्॥३४॥
तेन तन्मरुकान्तारं पृथिव्यां खलु विश्रुतम्।
निपातितः शरो यत्र दीप्ताशनिसमप्रभः॥३५॥
ननाद च तदा तत्र वसुधा शल्यपीडिता।
तस्माद् व्रणमुखात्तोयमुत्पपात रसातलात्॥३६॥
स वभूव तदा कूपो व्रण इत्यभिविश्रुतः।
सततं चोत्थितं तोयं समुद्रस्येव दृश्यते॥३७॥
अवदारण शब्दश्च दारुणः समपद्यत।
तस्मात्तद्वाणपातेन त्वयः कुक्षिष्वशोषयत्॥३८॥
विख्यातं त्रिषु लोकेषु मरुकान्तारमेव तत्।
शोषयित्वा ततः कुक्षिं रामो दशरथात्मजः॥३९॥
वरं तस्मै ददौ विद्वान् मरवेऽमरविक्रमः।
पशव्यश्चाल्परोगश्च फलमूल रसायुतः॥४०॥
बहुस्नेहो बहुक्षीर सुगन्धिर्विविधौषधः।
एवमेतैर्गुणैर्युक्तो बहुभिः सततं मरुः॥४१॥
रामस्य वरदानाच्च शिवः पन्था वभूव ह॥४२॥
समुद्र सुखाने के लिए भगवान् राम ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया तो समुद्र (उसके अधिपति) ने कहा कि वह जड़ है, स्वयं मार्ग नहीं दे सकता। उस पर पुल बनाना पड़ेगा। अमोघ बाण को छोड़ने के लिए समुद्र ने कहा कि इसे मेरे उत्तर की तरफ पवित्र द्रुमकुल्य में छोड़ें जहां आभीर आदि दस्यु रहते हैं तथा मेरा जल पीते हैं। वहां जा कर बाण ने उसे मरुकान्तार (मरुभूमि जैसा) बना दिया। वहां की झीलों का जल सूख गया। जहां बाण गिरा था उसके व्रण (आघात) से कूप बन गया जिसे व्रण कूप कहते हैं। उसके बाद राम ने उस स्थान को वर दिया कि वह पशुओं के लिए उत्तम, फल मूल मधु से भरा और रोगमुक्त रहेगा। वहां घी दूध तथा सुगन्धित औषधियां बहुत होंगी।
द्रुम का प्रयोग तथा अर्थ वैदिक साहित्य में पर्याप्त है, इसका अपभ्रंश दिरहम नहीं हो सकता है। सम्पत्ति अर्थ में यह दीर्घम् का अपभ्रंश हो सकता है। दीर्घम् = बड़ी मुद्रा, निष्क (निक्का) = छोटी मुद्रा।
द्रु -वनस्पतयो वै द्रु (तैत्तिरीय संहिता, १/३/९/१)
द्रुघण=द्रुममयो घनः (निरुक्त, ९/२३)
आ तू षिञ्च हरिमीं द्रोरुपस्थे वाशीभिस्तक्षताश्मन्मयीभिः (ऋक्, १०/१०१/१०)
हरित् द्रुम (हरा वृक्ष) को सींचने के विषय में।
द्रोणाहावमवतमश्चक्रमं सत्रक्रोशं सिञ्चता नृपाणम्। (ऋक्, १०/१०१/७)
द्रोण = द्रुममय (निरुक्त, ५/२६)
वट वृक्ष गुरुशिष्य परम्परा का प्रतीक है। जैसे गुरु शिष्य को अपना ज्ञान दे कर अपने जैसा बना देता है, उसी तरह वट की हवाई शाखा जमीन से लग कर वैसा ही वृक्ष बना देती है। अतः वट वृक्ष आदि गुरु शिव का प्रतीक है, मूल द्रुम से बने दुम गुरु-शिष्य परम्परा का। द्रुम से द्रुम को दुमदुमा कहते हैं, जो केवल भारत के शिव पीठों में है जैसे भुवनेश्वर में लिंगराज के निकट दुमदुमा, कोलकाता में दक्षिणेश्वर के निकट दुमदुमा (दमदम हवाई अड्डा), अमृतसर हरमन्दिर की दमदमी टकसाल (टकसाल की तरह शिष्य निर्माण), वैद्यनाथ धाम का दुमका, सोमनाथ का दुमियाणी। शिव अवतार हनुमान् द्रुम के द्रुम हैं, इसी से दुम (पूंछ) हुआ है।