स्वतंत्रता संग्राम में प्रेस की आजादी हेतु संघर्ष
19 वीं सदी की शुरुआत के साथ ही भारत में चेतना की लहरें हिलारें लेने लगीं थीं। मानव अधिकारों और विशेष रूप से प्रेस की आजादी के सवाल को गंभीरता के साथ महसूस किया जाने लगा था। प्रेस पर तरह-तरह के दबाव डालने की ब्रिटिश सरकार की कोशिशों का विरोध भी अंगड़ाई लेने लग गया था। 1824 में प्रेस पर अंकुश लगाने वाले एक कानून के खिलाफ राजा राममोहन राय ने सुप्रीम कोर्ट को ज्ञापन भेजा था। इसमें उन्होंने लिखा था कि, ‘‘हर अच्छे शासक को इस बात की फ़िक्र होनी चाहिये कि वह लोगों को ऐसे साधन उपलब्ध करवाये जिसके जरिये उन समस्याओं और मामलों की सूचना, शासन को जल्द से जल्द मिल सके, जिन समस्याओं के हल में शासन के हस्तक्षेप की जरूरत है। इस महत्वपूर्ण लक्ष्य की प्राप्ति के लिये यह जरूरी है कि प्रेस को अभिव्यक्ति की आजादी दी जाये।’’
1870 से 1918 का समय ऐसा था जब चेतना और जागरूकता की लहर फैलनी तो शुरू हो गयी थी लेकिन सामूहिक भागीदारी वाले राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरूप पूरी तरह से नहीं उभर सका था। जनता को मुद्दों और सवालों से जोड़ने के लिये उस समय न तो छोटी-बड़ी सभाओं का सिलसिला ही शुरू हो सका था और न ही कोई ऐसा राजनैतिक कार्यक्रम सामने आ सका था जिसमें जनता की भागीदारी हो सकती और जिसे जन-संघर्ष का रूप दिया जा सकता। उस समय सबसे पहला राजनीतिक कार्यक्रम यही था कि जनता का राजनीतिकरण किया जाये, राजनैतिक चेतना का प्रचार -प्रसार किया जाए, अपने अधिकारों के प्रति लोगों को शिक्षित किया जाये और राष्ट्रीय विचारधारा का प्रसार किया जाए। चूंकि उस समय भारतीय जनता के पास न कोई संगठन था और न कोई राजनीतिक कार्यक्रम सामने था इसलिये प्रेस ही उस समय एक ऐसा हथियार था जिसके जरिये जनता को राजनैतिक रूप से शिक्षित किया जा सके और एक राष्ट्रीय विचारधारा का पौधा रोपा जा सके। यहां तक कि तब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी अपने ज्यादातर कामकाज के लिये प्रेस पर ही निर्भर थी। राजनीतिक कार्यक्रम चलाने के लिये उस समय तक कांग्रेस का कोई संगठनात्मक आधार नहीं तैयार हो पाया था। इसके प्रस्तावों और कार्यवाईयों को भी जनता के बीच अखबार ही पहुंचाते थे। राष्ट्रीय आंदोलन की बुनियाद रखने में अखबारों और पत्राकारों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका थी, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना जिन लोगों ने की, उनमें से लगभग एक तिहाई पत्रकार थे।
ब्रिटिश शासन के खिलापफ संघर्ष के इस शुरुआती दौर में कई निडर अखबारों ने जन्म लिया। जी॰ सुब्रहमण्यम अययर के संपादन में ‘द हिन्दू’ और ‘स्वदेश मित्राम्’, बाल गंगाधर तिलक के संपादन में ‘केसरी’ और ‘मराठा’, सुरेन्द्र नाथ बैनर्जी के संपादन में ‘बंगाली’, शिशिर कुमार व मोती लाल घोष के संपादन में ‘अमृत बाजार पत्रिका’, गोपाल कृष्ण गोखले के संपादन में ‘सुधारक’, एन॰ एन॰ सेन के संपादन में ‘इंडियन मिरर’, दादा भाई नैरोजी के संपादन में ‘हिन्दुस्तानी’ और ‘एडवोकेट ऑफ इंडिया’ और पंजाब में ‘द ट्रिब्यून’ व ‘अखबार-ए-आम’ तथा बंगाल में ‘इंदु प्रकाश’, ‘बंग निवासी’ और ‘साधारणी’ जैसे अखबार अस्तित्व में आये। दरअसल, उस समय भारत में शायद ही कोई ऐसा बड़ा राजनैतिक नेता था जो खुद अखबार न निकालता हो या फिर किसी न किसी रूप में अखबार से न जुड़ा हो।
अखबारों का असर सिर्फ पढ़े-लिखे लोगों के बीच ही नहीं था और न ही वे शहरों व बड़े कस्बों तक सीमित थे, बल्कि इनकी पहुंच दूर-दराज के गांवों तक भी थी। हालांकि गांवों में कोई इक्का -दुक्का शिक्षित व्यक्ति ही होता था पर अखबार पढ़कर वह उसकी चर्चा दसियों और लोगों से करता था। फिर धीरे-धीरे पूरे देश में पुस्तकालयों और वाचनालयों की स्थापना की एक लहर-सी चल पड़ी। अक्सर छोटी-छोटी जगहों के ‘पुस्तकालय’ या ‘वाचनालय’ में सिर्फ एक ही अखबार आया करता था। ऐसे पुस्तकालयों में फर्नीचर के नाम पर एक मेज, एक-दो बेंचें और एक चारपाई पड़ी होती थी। अखबारों में छपे एक-एक शब्द को लोग बहुत ध्यान से पढ़ते थे और फिर उस पर चर्चा करते थे, इस तरह उस समय के अखबार लोगों को सिर्फ राजनीतिक रूप से शिक्षित ही नहीं कर रहे थे बल्कि वह उन्हें सामूहिक भागीदारी भी सिखा रहे थे।
इन अखबारों में आमतौर पर सभी बड़े राजनैतिक मुद्दों, सवालों और विवादों को उठाया जाता था। इन अखबारों ने सशक्त विपक्ष की भूमिका भी निभाई। आमतौर पर सभी सरकारी नीतियों और कानूनों का वे जमकर विरोध करते। उस समय भारतीय प्रेस का एक ही उद्देश्य था विरोध, विरोध और बस विरोध। लेकिन यह विरोध निचले स्तर का नहीं होता था बल्कि अखबार सभी मुद्दों को गहराई और बारीकी से और बड़ी जिम्मेदारी के साथ विश्लेषित करते थे। 1870 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय दंड संहिता में धारा 124-ए को जोड़ा जिसके तहत भारत में विधि द्वारा स्थापित, ‘‘ब्रिटिश सरकार के प्रति विरोध की भावना भड़काने वाले व्यक्ति’’ को तीन साल की कैद से लेकर आजीवन देश-निकाला की सजा दिये जाने का प्रावधान था। बाद में इस धारा में और कड़े प्रावधान जोड़े गए।
भारतीय पत्राकारों ने बड़ी अक्लमंदी से काम लेते हुए कई ऐसे तरीके खोज निकाले जिससे उन्हें इन कानूनों की गिरफ्त में फंसा न जा सके। मिसाल के तौर पर धारा 124-ए से बचने का उन्होंने अनोखा तरीका खोजा। चूंकि ब्रिटिश सरकार के प्रति जिन लोगों की निष्ठा सन्देह से परे होती थी, उन पर धारा 124-ए लागू नहीं होती थी, इसलिये भारतीय पत्राकार जब साम्राज्यवादी शोषण के खिलापफ अपने लेखों में आग उगलते थे तो उसके साथ ही महारानी और ब्रिटिश सरकार के प्रति गहरी निष्ठा जताने वाली बातें भी लिख देते थे। भारतीय पत्राकारों ने एक तिकड़म ढूंढ़ निकाली थी। लंदन में छपने वाले समाजवादी और आयरिश अखबारों में छपी साम्राज्यवाद विरोधी सामग्री वे उठाकर अपने अखबार में छाप लेते थे या इसी तरह सुधारवादी सोच के ब्रिटिश नागरिकों की चिट्ठियां वे अपने अखबारों में छाप देते थे। इन सबके खिलापफ ब्रिटिश सरकार कार्यवाही नहीं कर सकती थी क्योंकि अगर इन मामलों में किसी भारतीय व्यक्ति के खिलापफ मामला चलाया जाता तो उस मामले में ब्रिटिश नागरिकों या ब्रिटिश अखबारों को भी प्रतिवादी बनाना पड़ता। जाहिर है कि ब्रिटिश कानून इसकी इजाजत नहीं देता था इसलिये ब्रिटिश सरकार मन मारकर रह जाती।
भारतीय पत्राकार कभी-कभी ब्रिटिश नौकरशाही को तंग भी किया करते थे। वे किसी ब्रिटिश अखबार से उड़ाकर साम्राज्य विरोधी कोई सामग्री अपने अखबार में छाप देते थे, पर साथ में यह उल्लेख नहीं करते थे कि यह अंश उन्होंने किसी ब्रिटिश अखबार से लिया है तो वे बेचारे कुढ़कर रह जाते थे। मिसाल के तौर पर रूस में जारशाही के खिलापफ रूसी उग्रवादियों के संघर्ष का विवरण कुछ इस तरह से छापा जाता कि पढ़ने वाले को वह भारतीय स्थितियों ;यानि बंगाल और महाराष्ट्र के दमन चक्रद्ध से काफी मिलता जुलता लगता। ब्रिटिश अफसर जब इसके खिलापफ कार्यवाही शुरू करते तो उन्हें पता चलता कि यह अंश तो उस भारतीय अखबार ने ‘लंदन टाइम्स’ या ऐसे ही किसी अन्य ब्रिटिश अखबारों से उठाकर छापा है।
पर कुल मिलाकर राष्ट्रवादी पत्राकारों का खासकर भारतीय भाषाई पत्राकारों का काम बहुत कठिन था। एक तो उन्हें ऐसी शैली में लिखना था कि लोग उसे समझ भी सकें। अखबारों के ज्यादातर पाठक अ(र् शिक्षित थे और अखबारों की जिम्मेदारी यह थी कि उन्हें एक बहुत ही जटिल विषय को पाठकों तक पहुंचाना था, वह भी कानूनों से बचते हुए। लेकिन फिर भी राष्ट्रवादी पत्राकारों ने यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई।
प्रेस की आजादी के सवाल को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने शुरू से ही बहुत महत्व दिया। जब-जब ब्रिटिश सरकार ने प्रेस पर हमला किया या प्रेस को दबाने की कोशिश की राष्ट्रीय आन्दोलन ने तब-तब इसके खिलापफ संघर्ष किया। प्रेस की आजादी का सवाल दरअसल उस समय आजादी के सवाल से सीधे जुड़ गया था और प्रेस की आजादी के लिये लड़ाई देश की आजादी की लड़ाई का एक जरूरी हिस्सा बन गयी थी।
1878 का वर्नाकुलर प्रेस एक्ट
भारतीय प्रेस ने 1870 के दशक में मजबूती से पैर जमाना शुरू कर दिया था। लार्ड लिटन के प्रशासन की तो उन्होंने खुलकर आलोचना की। खासकर 1876-77 के अकाल पीड़ितों के प्रति ब्रिटिश सरकार के अमानवीय रवैये की तो जबर्दस्त आलोचना उन्होंने की। इसके साथ ही अखबारों का प्रसार भी बढ़ने लगा था और मध्यम वर्ग के पाठकों तक ही वे सीमित नहीं रह गये थे, बल्कि आम आदमी तक पहुंचने लगे थे।
इससे ब्रिटिश सरकार की भांहें टेढ़ी होना स्वाभाविक ही था। उसने अचानक इन अखबारों पर दमन की कुल्हाड़ी चलाई और 1878 में वर्नाकुलर प्रेस एक्ट लागू किया। यह कानून भाषाई अखबारों पर अंकुश लगाने के लिये बनाया गया था क्योंकि ब्रिटिश सरकार को उनकी ओर से ही बड़ा खतरा महसूस हो रहा था। इस कानून में यह प्रावधान किया गया था कि अगर सरकार यह समझती है कि कोई अखबार राजद्रोहात्मक सामग्री छाप रहा है या उसने सरकारी चेतावनी का उल्लंघन किया है तो सरकार उस अखबार, उसके प्रेस व अन्य सामग्री को जब्त कर सकती है।
भारतीय राष्ट्रवादियों ने इस कानून का जमकर विरोध किया। इस मुद्दे को लेकर कोलकाता के टाउनहाल में एक विशाल सार्वजनिक सभा हुई। किसी सार्वजनिक मुद्दे को लेकर यह पहला विरोध प्रदर्शन था। इस कानून के खिलापफ भारतीय प्रेस और दूसरे अन्य संगठनों ने भी संघर्ष छेड़ा, पफलस्वरूप 1881 में लार्ड रिपन ने यह कानून वापस ले लिया।
ब्रिटिश सरकार की दमनकारी चालों के खिलापफ भारतीय प्रेस ने कितनी चालाकी से काम लिया इसकी कई दिलचस्प मिसालें हैं। कई बार भारतीय अखबारों ने ब्रिटिश नौकरशाही को बेवकूपफ बनाया। वर्नाकुलर प्रेस एक्ट की ही बात लें, दरअसल यह कानून खासतौर पर ‘अमृत बाजार पत्रिका’ के लिये बनाया गया था, उस समय अखबार अंग्रेजी और बंग्ला दोनों भाषाओं में छपता था। कानून का उद्देश्य इस अखबार के खिलापफ सरसरी कार्यवाही करना था लेकिन कानून लागू होने के अगले दिन उस समय ब्रिटिश अपफसर हक्के-बक्के रह गये जब अमृत बाजार पत्रिका के संपादकों ने रातोंरात इस अखबार को सिपर्फ अंग्रेजी अखबार में तबदील कर दिया था।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की जेल यात्रा
पत्राकारिता के लिये ब्रिटिश सरकार द्वारा सजा पाने वाले भारतीय थे सुरेन्द्रनाथ बनर्जी। वह राष्ट्रीय आन्दोलन को जन्म देने वाले नेताओं में से एक थे। श्री बनर्जी को एक मुकदमे के पफैसले के खिलापफ लिखने के लिये सजा हुई। कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायधीश नारिस की अदालत में शालिग्राम की एक प्रतिमा को लेकर मुकदमा चल रहा था। प्रतिमा कितनी पुरानी है इसका पफैसला करने के लिये नारिस ने उसे अदालत में मंगवाया और पिफर उसे देखकर घोषणा की कि वह प्रतिमा सौ साल से ज्यादा पुरानी नहीं हो सकती। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने 2 अप्रैल 1883 को अपने अखबार ‘बंगाली’ में इसके खिलापफ बहुत रोषभरे शब्दों में संपादकीय टिप्पणी लिखी। उन्होंने लिखा था कि-‘‘नारिस ने सबूत दे दिया है कि वह इस उच्च और जिम्मेदार पद के लायक नहीं है। इस युवा और नौसिखिये न्यायाधीश की सनक पर लगाम लगाने के लिये
कुछ न कुछ किया ही जाना चाहिए।’’ इसका जो नतीजा होना था, वही हुआ। उच्च न्यायालय में उनके खिलाफ अदालत की मानहानि का मुकदमा चला। इस मुकदमे की सुनवाई पांच जजों की खण्डपीठ ने की, जिसमें चार यूरोपीयन थे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को दो मास कैद की सजा दी गई। इस पफैसले की खबर पफैलते ही जनता का गुस्सा भड़क उठा। कलकत्ता के जिन हिस्सों में भारतीय आबादी रहती थी वहां पूर्ण हड़ताल हो गई। छात्रों ने उच्च न्यायालय के समक्ष उग्र प्रदर्शन किया। अदालत की खिड़कियों के शीशे तोड़ डाले और पुलिस पर पथराव किया। इन छात्रों का नेतृत्व करने वालों में युवा आशुतोष मुखर्जी भी थे जिन्होंने बाद में कोलकाता विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में अत्यधिक ख्याति अर्जित की। कोलकाता समेत बंगाल के कई इलाकों और लाहौर, अमृतसर, आगरा, पफैजाबाद, पूना व अन्य शहरों में विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला चला। कोलकाता में शायद पहली बार खुले मैदानों में इतनी विशाल आम सभाएं हुईं थी।
तिलक और राजद्रोह
आजादी की लड़ाई के दौर में प्रेस की आजादी के सवाल को लेकर सबसे ज्यादा जुझारू संघर्ष, उग्र राष्ट्रवादी नेता बालगंगाधर तिलक ने किया। 1856 में जन्मे तिलक ने स्नातक उपाधि हासिल करने के बाद अपना पूरा जीवन देश सेवा में लगा दिया।
जी॰ जी॰ आगरकर के साथ उन्होंने 1881 में मराठी भाषा में ‘केसरी’ और अंग्रेजी में ‘मराठा’ नाम से दो अखबारों का प्रकाशन शुरू किया। 1888 में उन्होंने खुद इन दोनों अखबारों का संपादन संभाला और उनके जरिये ब्रिटिश शासन के खिलापफ जनता में जागरुकता पैदा करना शुरू किया। साथ ही ब्रिटिश शासन के खिलापफ राष्ट्रीय आंदोलन चलाने के लिये भी जनता को प्रेरित करने का काम शुरू किया गया। तिलक एक निडर, साहसी और स्पष्ट बोलने वाले पत्राकार थे, जिनकी भाषा सरल बेलाग और सीधी चोट करने वाली थी।
तिलक ने राष्ट्रीयता की भावना का प्रचार प्रसार करने का एक और अद्भुत तरीका खोजा। सारे महारष्ट्र में अत्याधिक उत्साह और श्र(ा से मनाये जाने वाले गणपति महोत्सव को उन्होंने पहली बार 1893 में राष्ट्रीयता के प्रचार प्रसार का माध्यम बनाया। दस दिनों तक चलने वाले गणपति पूजा के इस महोत्सव में गीतों, भाषणों और अन्य तरीकों से उन्होंने लोगों में राष्ट्रीयता की भावना कूट-कूट कर भरी। इसके बाद 1896 में शिवाजी जयंती पर मनाये जाने वाले समारोहों का भी उन्होंने इसी तरह प्रयोग किया और राष्ट्रीय संघर्ष के लिये युवा मराठियों को तैयार किया। इसी साल उन्होंने कपड़े पर लगे उत्पाद शुल्क के विरोध में सारे महाराष्ट्र में विदेशी वस्त्रा बहिष्कार आन्दोलन चलाया। शायद वे पहले राष्ट्रवादी नेता थे जिन्होंने इस तथ्य को पहचाना था कि राष्ट्रीय आन्दोलन में निम्न मध्य वर्ग, किसान, मज़दूर और दस्तकार कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं और इसलिये इन लोगों को भी कांग्रेस से जोड़ा जाना चाहिए।
विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार को लेकर चले आंदोलन के कारण अंग्रेजों ने पिफर दमन चक्र चलाया। लोगों में क्षोभ और निराशा बढ़ने लगी और निराशा के पफलस्वरूप बंगाल के आत्माभिमानी युवकों ने उग्रवाद और आतंकवाद का रास्ता पकड़ा। 1908 के शुरू में सरकारी अफसरों पर बमों से हमला किये जाने की कई वारदातें हुईं। सरकार के छक्के छूट गये। उसने पिफर अखबारों को निशाना बनाया। प्रेस पर अंकुश रखने के लिए कई कानून बनाये गए। बहुत से अखबारों और संपादकों के खिलापफ मुकदमे चलाए गए और प्रेस की आज़ादी लगभग पूरी तरह कुचल दी गई। ऐसे माहौल में यह मुमकिन नहीं था कि तिलक की खबर नहीं ली जाती। बंगाल के बाहर तिलक ही तो बहिष्कार आंदोलन और जुझारू राजनीति के अगुआ थे।
भारतीय संघर्ष में बमों यानि आतंकवाद के प्रवेश पर तिलक ने एक लेखमाला लिखी। उन्होंने व्यक्तिगत हत्याओं और हिंसा की निन्दा की। उन्होंने इस प्रवृति को एक जहरीला पेड़ कहा लेकिन साथ ही उन्होंने सरकार को भी दोषी ठहराया कि वह असंतोष और आलोचना का निर्ममतापूर्वक दमन कर रही है और लोगों के अधिकारों को कुचल रही है। ऐसे माहौल में हिंसा चाहे वह कितनी भी निन्दनीय क्यों न हो, अपरिहार्य हो गई है।
अपने एक लेख में उन्होंने कहा सरकारी अपफसर जब बिना किसी कारण के लोगों को आतंकित करने लगें और जनता को तरह-तरह से डरा-धमकाकर उसमें निराशा पफैलाने की कोशिश करें, जब बम की आवाज अपफसरों को और सरकार को सच्चाई से आगाह कराती है कि लोग निस्तेज और निर्जीव बैठे रहने और दमन व शोषण को बर्दाश्त करते रहने की सीमा से आगे बढ़ चुके हैं और अब वे कुछ करना चाहते हैं।’’ सरकार को भला क्यों रास आतीं ये सब बातें। उसने पिफर 24 जून 1908 को तिलक को गिरफ्रतार कर लिया और इन लेखों को प्रकाशित करने के लिए उनके खिलापफ राजद्रोह का मुकदमा दायर किया। तिलक ने एक बार पिफर जबरदस्त हिम्मत का परिचय दिया। उन्होंने तर्क पेश किए कि वह निरपराध हैं।
दरअसल उन्हें यह सब करने से पहले ही पता था। उनके एक दोस्त पुलिस अपफसर ने उन्हें आगाह कर दिया था कि वह गिरफ्रतार किये जाने वाले हैं इसलिए होशियार हो जाएं। तिलक यह सुनकर हंस पड़े और उन्होंने अपने शुभचिंतक मित्रा से कहा, ‘‘सरकार ने तो पूरे देश को ही एक विशाल जेल में बदलकर रख दिया है। हम सभी कैदी ही तो हैं। हां जेल जाने का मतलब सिपर्फ यह होगा कि आप एक बड़े कमरे से एक छोटी कोठरी में पहुंचा दिए गए।’’ अदालत में तिलक ने सवाल उठाया-‘‘यहां सवाल तिलक का नहीं है। सवाल है कि क्या सरकार वाकई प्रेस की आजादी के प्रति ईमानदार है, क्या वह भारत में भी प्रेस को उतनी आजादी देने को तैयार है जो आजादी इंग्लैंड में प्रेस को मिली हुई है।’’ बहरहाल इस अदालती बहस का जो नतीजा होना था वही हुआ। जूरी के दो भारतीय सदस्यों की असहमति के बावजूद तिलक को अपराधी ठहराया गया।
इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई, अखबारों ने घोषणा की कि तिलक का अनुसरण करते हुए वे भी जी जान से प्रेस की आज़ादी के लिए संघर्ष करेंगे। 22 जुलाई को तिलक को सजा सुनाई गई थी। उस दिन बम्बई के सारे बाजार बंद रहे और यह बंद एक हफ्रते तक जारी रहा। बम्बई की सभी 80 कपड़ा मिलों और रेल मजदूरों ने छह दिन तक हड़ताल की।
ब्रिटिश सरकार लगातार प्रेस का गला घोंटने की कोशिश करती रही। तिलक के मामले में उसने जो कुछ किया था, उसकी पुनरावृति तिलक के राजनीतिक उत्तराधिकारी गांधी के खिलापफ चले मुकदमे में हुई। गांधी जी ने यंग इंडिया में कुछ लेख लिखे थे। इन लेखों के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1922 में उन पर धारा 124-ए के तहत राजद्रोह के अभियोग में मुकदमा चलाया और उन्हें भी तिलक की तरह ही छह साल कैद की सजा सुनाई गई। गांधी जी ने सजा सुनकर जवाब दिया, ‘‘आप लोगों ने बाल गंगाधर तिलक के खिलापफ चले मुकदमे की पुनरावृत्ति कर मेरा सम्मान किया है।
मैं सिपर्फ यह कहना चाहता हूं कि मेरे लिए यह सबसे अधिक गर्व और प्रतिष्ठा की बात है कि तिलक के साथ मेरा नाम भी जुड़ गया।’’ तिलक और गांधी जी के खिलापफ चले मुकदमों में बस यही पफर्क था कि गांधी जी ने अपने खिलापफ लगाए गए अभियोगों को स्वीकार किया था जबकि तिलक ने अभियोगों का खंडन किया था।
दरअसल यह पफर्क बताता है कि 1908 से 1922 तक आते-आते राष्ट्रीय आंदोलन के स्वरूप और संघर्ष के तरीकों में कितना पफर्क आया था। राष्ट्रीय आंदोलन को इस पड़ाव तक पहुंचाने में तिलक की राजनीति और पत्राकारिता का योगदान अविस्मरणीय है।
सुन्दर कुमार
प्रधान संपादक