स्वाधीनता संग्राम में पत्राकारों का बलिदान
हमारे स्वाधीनता संग्राम में पत्राकारिता और पत्राकारों ने अपना अमूल्य योगदान दिया है। विदेशी शासन के दौरान देश में समाचार पत्रा भी दासता की बेड़ियों में जकड़े हुये थे। इसके बावजूद अनेक साहसी पत्राकारों ने अखबारों द्वारा जनमानस में स्वाधीनता के प्रति चेतना जागृत करने का कार्य किया। स्वाधीनता संग्राम का अर्थ राजनीतिक क्षेत्रा में विदेशी साम्राज्य से सशस्त्रा टक्कर लेना ही नहीं वरन् जन साधारण को उस संग्राम के लिये प्रेरित करना भी था और इसी अहम काम को अंजाम दिया था पत्राकारिता ने।
भारतीय पत्राकारिता के प्रवर्तन का श्रेय मानव गरिमा व वाक स्वातंत्राय के एक महान् प्रेमी, अंग्रेज पत्राकार जेम्स आगस्टस हिकी को जाता है जिन्होंने 29 जनवरी 1780 को पहला भारतीय पत्र ‘हिकीज बंगाल गजट’ निकाला। इस स्वातंत्राय चेता पत्राकार ने अपने पत्रा के माध्यम से सर्वप्रथम ईस्ट इंडिया कम्पनी की कार्यशैली व नीतियों की तीव्र आलोचना की।
इससे क्रोधित होकर कम्पनी के गर्वनर जनरल, वारेन हेस्टिंग्ज ने पत्रा के प्रकाशन पर रोक लगा दी और उसकी डाक तक बन्द करवा दी। बाद में हिकी को सरेआम पीटकर जेल में डाल दिया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय पत्राकारिता का उदय बिन्दु ही विद्रोह से प्रारंभ होता है।
स्वतंत्राता की जो लहर 20वीं शताब्दी में पफैली उसकी नींव 19वीं शताब्दी में ही पड़ चुकी थी। उस समय सभी साहित्यकारों व पत्राकारों ने भारतीयों में नवजागरण का मंत्रा पफूंका। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि स्वाधीनता आंदोलन के समर्थन में, हिन्दी के प्रायः सभी छोटे-बड़े साहित्यकार, प्रत्यक्ष रूप से पत्राकारिता से जुड़े रहे। इनमें भारतेंदु हरिश्चंद्र, पं॰ केशव रामभट्ट, पं॰ राधाचरण गोस्वामी, पं॰ बालकृष्ण भट्ट, पं॰ प्रताप नारायण मिश्र, पं॰ मदन मोहन मालवीय, अंबिका प्रसाद वाजपेयी, बाबू राव विष्णु पराड़कर, आचार्य शिवपूजन सहाय व रामवृक्ष बेनीपुरी आदि प्रमुख थे।
भारतेंदु ने न केवल साहित्यक चेतना जगाई बल्कि राष्ट्रीय उदबोधन में भी महत्वपूर्ण कार्य किया। इसी प्रकार पं॰ मदन मोहन मालवीय उन पत्राकार सेनानियों की श्रेणी में आते हैं जिन्होंने देश सेवा के व्रत में घर-परिवार और अध्यापक की नौकरी छोड़ी और कठिनाइयों का मार्ग अपनाया। मालवीय जी, स्वाधीनता के उद्देश्य को लेकर पत्राकारिता के क्षेत्रा में उतरे। 1885 में उन्होंने, ‘इंडियन ओपिनियन’ नामक पत्रा का संपादन प्रारंभ किया और 1907 में अपना अखबार ‘अभ्युदय’ निकाला। ‘अभ्युदय’ उन दिनों क्रांति का अग्रदूत माना जाता था।
1818 का वर्ष, पत्राकारिता के क्षेत्रा में ऐतिहासिक रहा। इसी वर्ष राजा राममोहन राय ने समाज सुधार व स्वतंत्राता संघर्ष के लिये पत्राकारिता को एक अस्त्रा के रूप में चुना।

उन्होंने 1821 में ‘संवाद-कौमुदी’ ;बांग्लाद्ध, 1822 में ‘मिरात-उल-अखबार’ ;फारसीद्ध और 1824 में ‘बंगदूत’ नामक पत्रा निकाले। ‘आधुनिक भारत के जन्मदाता’ कहे जाने वाले राजा राम मोहन राय प्रेस की स्वतंत्राता के समर्थक थे और उन्होंने उन प्रतिबन्धों का सदा कड़ा विरोध किया जो प्रेस पर लगाये गये। सेना का भारतीयकरण, जूरी द्वारा न्याय, दीवानी व पफौजदारी कानूनों का संकलन तथा न्याय व शासन का प्रथककरण आदि मुद्दों पर उन्होंने संघर्ष किया और अंततः सफल रहे। 1818 में ही भारतीय भाषा का प्रथम समाचार-पत्रा ‘दिग्दर्शन’ और हिन्दी का प्रथम अखबार ‘उदंत मार्तंड़’ निकले। ‘उदंत मार्तंड़’ ने आजादी के दीवानों में नये जोश व उत्साह का संचार किया।
1857 की क्रांति के बाद भारतीय समाचार-पत्रों ने पाठकों तक समाचार पहुंचाने के अपने प्राथमिक उद्देश्य का निर्वाह ही नहीं किया अपितु उन्होंने राष्ट्रवादी भावना को भी प्रोत्साहित किया। अग्रणी समाज सुधारक ईश्वर चन्द विद्यासागर द्वारा 1858 में स्थापित बंगाली साप्ताहिक ‘सोमप्रकाश’, बंकिम चन्द चैटर्जी द्वारा सम्पादित ‘बंगदर्शन’ तथा अक्षय चन्द सरकार द्वारा सम्पादित ‘सार-विधि’ ने राष्ट्रवाद के प्रोत्साहन में सराहनीय भूमिका निभाई।
1861 में ‘बाम्बे टाइम्स’, ‘टाइम्स आपॅफ इंडिया’ के नाम से छपने लगा। इसके संस्थापक, राबर्ट नाइट, क्रांतिवादी और स्वराज समर्थक माने जाते थे। बाद में उन्होंने, ‘स्टेट्समैन’ व ‘फ्रेंड आफ इंडिया’ का भी प्रकाशन किया। मोती लाल द्वारा सम्पादित ‘अमृत बाजार पत्रिका’ सरकार की नीतियों की तीव्र आलोचक थी। इस दौर के अन्य राष्ट्रवादी व क्रांतिकारी पत्रों में, ‘द हिन्दू’, ‘मराठा’, ‘इंडिया रिव्यू’, ‘भारत मित्रा’ आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। ‘द हिन्दू’ के संस्थापक, जी॰ सुब्रह्ममण्यम अÕयर व ‘राष्ट्रदेव’ के संपादक श्री देव सुमन अपने जोशीले व प्रेरक लेखन के लिये नवयुवकों में अत्याधिक लोकप्रिय थे।
तत्कालीन संयुक्त प्रांत ;अब उ॰ प्र॰ की जनता में आजादी के लिये तड़प पैदा करने वाले अखबार, ‘स्वराज’ का राष्ट्रीय आंदोलन में अविस्मरणीय योगदान किसी से छिपा नहीं है। इसके संस्थापक, संपादक, रायजादा शांति नारायण भटनागर ने प्रेस की आजादी और भारत की स्वाधीनता के लिये जीवनपर्यंत संघर्ष किया। अपने छोटे से जीवन काल ;1907 से 1910 में ‘स्वराज’ ने लोगों के मन में अपनी अलग पहचान बना ली थी। इससे जुड़े सभी संपादकों को एक के बाद एक लम्बे कारावास की सजा हुयी लेकिन उन्होंने स्वाधीनता का सपना देखना नहीं छोड़ा और वे निरंतर इसके लिये संघर्ष करते रहे। परिस्थितियां अपनी अभिव्यक्ति का मार्ग स्वयं निर्मित कर लेती हैं।
असहयोग आंदोलन के प्रारंभ के साथ ही जिन नवीन परिस्थितियों की संरचना हुयी, उन्होंने अभिव्यक्ति के लिये दैनिक समाचार- पत्रों की आवश्यकता, अनिवार्य रूप से महसूस की जिसके परिणाम स्वरूप 1920 में भारी संख्या में दैनिक पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इनमें ‘प्रताप’, ‘लोकमत’, ‘वर्तमान’, ‘स्वतंत्रा’, ‘भविष्य’, ‘स्वराज्य’, ‘भावनामा’, ‘आज’ आदि प्रमुख हैं।
राष्ट्रीय आन्दोलन व हिन्दी पत्राकारिता के इतिहास में ‘आज’ का एक प्रमुख स्थान हैं। राष्ट्रीय आन्दोलन व हिन्दी पत्राकारिता के इतिहास में ‘आज’ का प्रकाशन एक ऐतिहासिक घटना है। पं. बाबू राव विष्णु पराड़कर के संपादकत्व में ‘आज’ और ‘स्वाधीनता संग्राम आंदोलन’, एक हो गये थे।
निर्भयतापूर्वक अंग्रेजी सरकार की कटु आलोचना करने पर पराड़कर जी को कई बार जेल जाना पड़ा। असहयोग आंदोलन के दौरान ‘आज’ के माध्यम से ही गांधी जी का संदेश देश में प्रभावशाली ढंग से प्रसारित होता था।
‘आज’ द्वारा फैलाई जा रही उत्तेजना से घबरा कर लॉर्ड इरविन ने जब उस पर व्यापक अंकुश लगा दिया तो इसका प्रकाशन कुछ समय के लिये बन्द हो गया। ‘आज’ के न छपने पर बनारस की कांग्रेस कमेटी ने साइक्लोस्टाइल पर ‘रणभेरी’ का प्रकाशन शुरू किया, जिसके प्रारंभिक अंकों का संपादन, पराड़कर जी ने ही किया। ‘आज’ और ‘रणभेरी’ ने राष्ट्रीय आंदोलन में जिस प्रकार सहयोग दिया वह अभूतपूर्व अद्वितीय व चिरस्मरणीय है। विदेशी हुकूमत की ईंट से ईंट बजा देने वाला ऐसा ही एक और अख़बार था ‘प्रताप’।

अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’ वस्तुतः वह प्रताप था, जो अपनी छाप न केवल हिन्दी पत्राकारिता पर अंकित कर गया वरन् राष्ट्र के स्वाधीनता संग्राम को भी तेजस्वी बना गया। विद्यार्थी जी मूलतः क्रांतिकारी थे।
नवयुवकों को परखना, उन्हें आश्रय देना, उन्हें अनुप्रमाणित करना और प्रेरणा देना विद्यार्थी जी का परम् ध्येय था। 1913 से 1930 तक का कोई भी ऐसा आंदोलन नहीं हुआ जिसका प्रचार-प्रसार और आंशिक नेतृत्व विद्यार्थी जी ने न किया हो। उनमें पारसमणि जैसी अद्भुत आकर्षण शक्ति थी जो प्रेरित व प्रभावित किये बिना नहीं रहती थी। ‘प्रताप’ से ही सरदार भगतसिंह को राष्ट्रीयता व क्रांतिकारिता की प्रेरणा मिली। विद्यार्थी जी की पत्राकारिता, आत्मदान, लोककल्याण, अन्याय, प्रतिकार व अनासक्ति योग पर आधारित थी। उनकी लेखनी, अंग्रेजों के विरोध में सदैव अग्निवर्षा करती रहती थी।
हिन्दी पत्राकारिता के युगप्रर्वतक, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी लम्बे समय तक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ व ‘सरस्वती’ से जुड़े रहे। अपने लेखन से उन्होंने जन-मानस में आजादी की जो अलख जगाई उसका उदाहरण मिलना कठिन है। प्रो॰ इंदु विद्या वाचस्पति के ‘अर्जुन’ का ध्येय वाक्य ‘न दैन्य न पलायनम’ था। स्वाधीनता की लड़ाई में ‘अर्जुन’ की भूमिका, चिरस्मरणीय रहेगी।
‘अर्जुन’ ने न केवल अंग्रेजी राज्य का विरोध किया वरन् देशी रियासतों में होने वाले अत्याचारों के विरोध में भी उसने अपनी शक्तिशाली वाणी अनुगुंजित की। श्रीराम शर्मा के ‘महारथी’, मालवीय द्वारा स्थापित ‘हिन्दुस्तान’, सत्यकाम विद्यालंकार के ‘नवयुग’ माखन लाल चतुर्वेदी का ‘कर्मवीर’, इलाहाबार का ‘लीडर’, ‘मराठा’ ;पूनाद्ध, ‘आर्यावृत’ ;पटनाद्ध व ‘नवभारत’ ;बंबईद्ध, ऐसे अखबार थे जो अनवरत्, अविचलित भाव से दृढ़ संकल्प, अटूट आस्था व अनंत आत्मविश्वास के साथ निरंतर राष्ट्रीय भावना का शंख पफूंकते रहे।
राजस्थान के पत्राकारों, विजय सिंह पथिक, जमना लाल बजाज और केसरी सिंह वारहट् के अथक प्रयासों से प्रकाशित, ‘राजस्थान केसरी’ और डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद के ‘देश’ ने अपने ओजस्वी विचारों से आजादी के ऐसे बीज बोये जो बाद में हमारी स्वतंत्राता के रूप में प्रस्पफुटित हुये। 1923 में निकले ‘मतवाला’ का स्वर सदैव सरकारी नीति के विरोध में रहा तो आगरा का ‘सैनिक’ राष्ट्रीय आंदोलन का एक मजबूत सिपाही रहा।
राष्ट्रीय आंदोलन के समय पत्राकारिता के क्षेत्रा में गांधी जी का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। उन्होंने ‘यंग इंडियन’ व ‘हरिजन’ के माध्यम से अपने अहिंसक क्रांतिकारी विचारों का प्रचार किया। सरकार को अपने राजनैतिक विचारों व कार्यक्रमों से अवगत कराया और आम जनता को एक बड़े आंदोलन के प्रति जागृत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया।
अपने पत्रों में निर्भीकता व निष्पक्षता से अपने विचार व्यक्त करके गांधी जी ने अन्य पत्राकार सेनानियों को भी निर्भीकता- पूर्वक अपने विचार व्यक्त करने के लिये प्रेरित किया। गुलामी के उस युग में पत्राकार, मूलतः स्वाधीनता संग्राम का यो(ा होता था और पत्राकारिता उसका शस्त्रा होता था। ऐसे ही एक यो(ा थे, अबुल कलाम आजाद।
मुस्लिम कट्टरपंथ और कठमुल्लावाद से लड़ने और भारत को आजादी दिलाने के लिये आजाद ने 1912 में उर्दू अखबार ‘अल-हिलाल’ निकाला। अपने क्रांतिकारी तेवरों से ‘अल-हिलाल’ ने विदेशी हुकूमत की चूलें हिला दीं। सरकार ने बलपूर्वक ‘अल-हिलाल’ का प्रकाशन बन्द करवा दिया तो अबुल कलाम ने ‘अल-बलाग’ नामक दूसरा अखबार निकाल दिया।
खिसियाई सरकार ने उन्हें गिरतार कर लिया। इसके बाद अबुल कलाम, बार-बार जेल जाते रहे और प्रत्येक बार रिहा होने पर दुगने जोश व उत्साह से पत्राकारिता के अस्त्रा से हुकूमत को घायल करते रहे। उर्दू पत्राकारिता के इस दौर में मुहम्मद अली ने ‘हमदर्द’ का प्रकाशन किया तो लाहौर से भी ‘तालीपफ-व-इरशाद’ निकलने लगा। इन दोनों अखबारों ने अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों की जमकर आलोचना की।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे पत्राकार व सेनानी, अकबर इलाहाबादी के कथन-‘‘खींचों न कमानों को, न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’’ से काफी प्रभावित थे। स्वतंत्राता पूर्व की भारतीय पत्राकारिता ने अपनी शक्ति का प्रयोग जनता को शिक्षित करने, उसमें राजनैतिक व राष्ट्रीय चेतना जगाने और आम जनता को प्रेरित व प्रोत्साहित करने में किया।
लेखक – डॉ. निशांत सिंह