ॐ का धनुष आकार
अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)-धनुर्गृहीत्वौपनिषदं महास्त्रं, शरं ह्युपासानिशितं सन्धयीत।
आयम्य यद् भावगतेन चेतसा, लक्ष्यं तदेवाक्षर सोम्य विद्धि॥
(मुण्डकोपनिषद्, २/२/३)
उपनिषद् में वर्णित प्रणव रूप महान् अस्त्र धनुष ले कर उपासना द्वारा तीक्ष्ण किया हुआ शर चढ़ाये। फिर भाव पूर्ण चित्त द्वारा उस बाण को खींच कर अक्षर पुरुष रूपी लक्ष्य को बेधे।
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्॥४॥
प्रणव (ॐ) ही धनुष है, आत्मा ही सर है और ब्रह्म ही उसका लक्ष्य है। प्रमाद रहित मनुष्य उसे बीन्ध सकता है। शर की तरह उसमें तन्मय होना चाहिए (ब्रह्म में लीन)।
प्रणवैः शस्त्राणां रूपं (वाज. यजु, १९/२५)
वक्ष्यन्तीवेदा गनीगन्ति कर्णं प्रियं सखायं परिषस्वजाना।
योषेव शीङ्क्ते वितताधि धन्वं ज्या इयं समने पारयन्ती। (ऋक्, ६/७५/३)
इस मन्त्र का ज्या देवता है। यह वेद कहती है। यह धनुष में लग कर स्त्री की तरह प्रिय सखा के कान के निकट (परिषस्व = पड़ोस में) जाती है (गनीगन्ति- अंग्रेजी में गन जो बाण या गोली छोड़ता है)। यह समन को पार कराती है। समन = संयमित मन। स्थिर बुद्धि से युद्ध जीतते हैं। स्त्री अर्थ में समन = स्वयंवर में प्रिय के पास ज्या = माला ले कर जाती है। आत्मा रूपी स्त्री अपने प्रिय ब्रह्म या परमात्मा के पास जाती है।
जुष्टा वरेषु समनेषु वल्गु (अथर्व, २/३६/१) कन्या वरों की प्रिय, संयमित मन की वल्गा (नियन्त्रक, लगाम) जैसे बगलामुखी।